Tuesday 22 January 2013

टेंपल सिटी कांचीपुरम

कहीं कला के लिए अपार श्रद्धा है तो कहीं देव भक्ति में रमे लोगों की संख्या ज्यादा है। कुछ स्थानों की सुन्दरता देखकर स्वर्ग की उपमा दे दी है, तो किसी स्थान को देवभूमि करार दे दिया गया है। भारत देश विविधताओं से भरा हुआ है। विभिन्न संस्कृतियों को अपने समाहित किए इस देश के राज्यों को कुछ और करीब से जानने के लिए हमारे साथ चलिए। पलार नदी के कि नारे बसा क ांचीपुरम भी देश का एक ऐसा ही अद़्भुत शहर है। क ांचीपुरम को पवित्र नगरों में गिना जाता है। इस शहर में तक रीबन 126 मंदिर स्थित हैं, जिस वजह से इसे 'टेप्पल सिटीÓ के नाम से भी जाना जाता है। कांचीपुरम के मंदिरों में आपको द्रविड़ शैली क ा आर्कि टेक्चर देखने क ो मिलेगा। यहां क ा सबसे बड़ा मंदिर भगवान शिव के लिए बना एक ंबरनाथ मंदिर है। इसी मंदिर के प्रांगण में स्थित एक 3,500 साल पुराना आम का पेड़ भी है, जिसे लोग बहुत पवित्र मानते हैं। देवी पार्वती के रुप को समर्पित क ामाक्षी अत्मा मंदिर अपने खूबसूरत आर्कि टेक्चर के लिए जाना जाता है। 11वीं शताब्दी में बने वर्धराजा पेरु मल मंदिर क ा भी पर्यटक ों में बहुत क्र ेज रहता है। इतिहास पर डाले नजर
कांचीपुरम ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में महत्त्वपूर्ण नगर था। सम्भवत: यह दक्षिण भारत का ही नहीं बल्कि तमिलनाडु का सबसे बड़ा केन्द्र था। बुद्धघोष के समकालीन प्रसिद्ध भाष्यकार धर्मपाल का जन्म स्थान यहीं था, इससे अनुमान किया जाता है कि यह बौद्धधर्मीय जीवन का केन्द्र था। यहाँ के सुन्दरतम मन्दिरों की परम्परा इस बात को प्रमाणित करती है कि यह स्थान दक्षिण भारत के धार्मिक क्रियाकलाप का अनेकों शताब्दियों तक केन्द्र रहा है। कांचीपुरम 7वीं शताब्दी से लेकर 9वीं शताब्दी में पल्लव साम्राज्य का ऐतिहासिक शहर व राजधानी हुआ करती थी। छठी शताब्दी में पल्लवों के संरक्षण से प्रारम्भ कर पन्द्रहवीं एवं सोलहवीं शताब्दी तक विजयनगर के राजाओं के संरक्षणकाल के मध्य 1000 वर्ष के द्रविड़ मन्दिर शिल्प के विकास को यहाँ एक ही स्थान पर देखा जा सकता है। 'कैलाशनाथार मंदिरÓ इस कला के चरमोत्कर्ष का उदाहरण है। एक दशाब्दी पीछे का बना 'बैकुण्ठ पेरुमलÓ इस कला के सौष्ठव का सूचक है। उपयुक्त दोनों मन्दिर पल्लव नृपों के शिल्पकला प्रेम के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। क्या देखें कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम शहर के पश्चिम दिशा में स्थित यह मंदिर कांचीपुरम का सबसे प्राचीन और दक्षिण भारत के सबसे शानदार मंदिरों में एक है। इस मंदिर को आठवीं शताब्दी में पल्लव वंश के राजा राजसिम्हा ने अपनी पत्नी की प्रार्थना पर बनवाया था। मंदिर के अग्रभाग का निर्माण राजा के पुत्र महेन्द्र वर्मन तृतीय के करवाया था। मंदिर में देवी पार्वती और शिव की नृत्य प्रतियोगिता को दर्शाया गया है। बैकुंठ पेरूमल मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर का निर्माण सातवीं शताब्दी में पल्लव राजा नंदीवर्मन पल्लवमल्ला ने करवाया था। मंदिर में भगवान विष्णु को बैठे, खड़े और आराम करती मुद्रा में देखा जा सकता है। मंदिर की दीवारों में पल्लव और चालुक्यों के युद्धों के दृश्य बने हुए हैं। मंदिर में 1000 स्तम्भों वाला एक विशाल हॉल भी है जो पर्यटकों को बहुत आकषित करता है। प्रत्येक स्तम्भ में नक्काशी से तस्वीर उकेरी गई हैं जो उत्तम कारीगर की प्रतीक हैं। कामाक्षी अम्मन मंदिर कामाक्षी अमां मंदिर यह मंदिर देवी शक्ति के तीन सबसे पवित्र स्थानों में एक है। मदुरै और वाराणसी अन्य दो पवित्र स्थल हैं। 1.6 एकड़ में फैला यह मंदिर नगर के बीचों-बीच स्थित है। मंदिर को पल्लवों ने बनवाया था। बाद में इसका पुनरोद्धार 14 वीं और 17वीं शताब्दी में करवाया गया। वरदराज मंदिर यह मंदिर उस काल के कारीगरों की कला का जीता जागता उदाहरण है। वरदराज मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर में उन्हें देवराजस्वामी के रूप में पूजा जाता है। मंदिर में 100 स्तम्भों वाला एक हाल है जिसे विजयनगर के राजाओं ने बनवाया था। एकमबारानाथर मंदिर यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर को पल्लवों ने बनवाया था। बाद में इसका पुर्ननिर्माण चोल और विजयनगर के राजाओं ने करवाया। 11 खंड़ों का यह मंदिर दक्षिण भारत के सबसे ऊंचे मंदिरों में एक है। मंदिर में बहुत आकर्षक मूर्तियां देखी जा सकती हैं। साथ ही यहां का 1000 पिलर का मंडपम भी खासा लोकप्रिय है। वेदानथंगल और किरीकिरी पक्षी अभ्यारण्य यह दोनों पक्षी अभ्यारण्य कांचीपुरम के अंदरूनी भाग में स्थित हैं। वेदानथंगल 30 हेक्टेयर और किरीकिरी 61 हेक्टेयर में फैला हुआ है। यह अभ्यारण्य बबूल और बैरिंगटोनिया पेड़ो से भर हुए हैं। इन अभ्यराण्य में पाकिस्तान, श्रीलंका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और साइबेरियन पक्षियों को देखा जा सकता है। पिन्टेल्स, स्टिल्ट्स, गारगानी टील्स और सैंडपाइपर जसी पक्षियों की प्रजातियां यह नियमित रूप से देखी जा सकती हैं। इन दोनों अभ्यराण्य में तकरीबन 115 पक्षियों की प्रजातियां पाई जाती हैं। साडिय़ों की करे खरीददारी कांचीपुरम सिल्क फैब्रिक और हाथ से बुनी रेशमी साडिय़ों के लिए भी यह देश-दुनिया में मशहूर है। बुनाई करने वाले उच्च क्वालिटी की सिल्क और शुद्ध सोने के तार इन साडिय़ों पर इस्तेमाल कर एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत साडिय़ों का निर्माण करते हैं। इसलिए इसे सिल्क सिटी भी कहते हैं। कुछ खऱीदने की इच्छा हो तो इन सिल्क की साडिय़ों की शॉपिंग ज़रूर करें क्योंकि दूसरे शहरों के मुकाबले ये यहाँ उचित व कम दामों में मिल जाती हैं। ९०० वर्ष पहले का अस्पताल तमिलनाडु के कांचीपुरम जिले में तिरुमुकुदल गाँव के एक प्राचीन मंदिर में मिले एक शिलालेख से पता चलता है की यहाँ करीब 900 वर्ष पहले 15 इमक वाला एक अस्पताल और वैदिक स्कूल था वेंकटेश पेरूमल मंदिर में यह शिलालेख पुरातत्व विद केवी सुब्रमण्यम ने खोजा है शिला लेख में असुरा सलाई का उल्लेख है जो एक अस्पताल था भारतीय पुरातव सर्वे के अनुसार मंदिर से लगे इस अस्पताल में अंपका स्कूल के छात्रो और मंदिर के कर्मचारियों का उपचार किया जाता था इस मंदिर को संरक्षित इमारत घोषित किया जा चुका है और इसका प्रबंधन ऐ यस आई के जिम्मे है शिला लेख के अनुसार वीरचोला नामक अस्पताल में 15 बिस्तर थे इसमे काम करने वाले करने वाले कर्मचारियों की संख्या पर्याप्त थी जिसमे कोदंद रामन अस्वथामन भट्टन नामक एक सर्जन कई नर्से नौकर और एक नाइ शामिल थे अस्पताल के कर्मचारियों को वेतन दिया जाता था अस्पताल में राखी गयी करीब 20 दवाईयों का ब्योरा भी शिलालेख में है इन दवायों से बबासीर पीलिया बुखार पेसाब की नली की बीमारियाँ टीबी रक्तस्राव आदि का इलाज किया जाता था। कैसे पहुंचे वायु मार्ग : मंदिरों का शहर कांचीपुरम जाने लिए वायुमार्ग अच्छा है। यहां पहुंचने के लिए निकटतम एयरपोर्ट चैन्नई है जो लगभग 75 किमी. दूर है। चेन्नई से कांचीपुरम लगभग 2 घंटे में पहुंचा जा सकता है। आप एयरपोर्ट से बस से जा सकते हैं। इसके अलावा आप यहां से टैक्सी लेकर जा सकते हैं। रेल मार्ग देश के प्रत्येक कोने से रेलमार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। कांचीपुरम का रेलवे स्टेशन चैन्नई, चेन्गलपट्टू, तिरूपति और बैंगलोर से जुड़ा है। स्टेशन से आप अपनी यात्रा प्रारंभ कर सकते हैं। सड़क मार्ग कांचीपुरम तमिलनाडु के लगभग सभी शहरों से सड़क मार्ग से जुड़ा है। विभिन्न शहरों से कांचीपुरम के लिए नियमित अंतराल में बसें चलती हैं।

गया की संस्कृति का पर्याय हैं बुद्ध, तिलकुट और पिंड दान

बिहार का दूसरा सबसे बड़ा शहर और दुनिया भर के बौद्ध एवं हिन्दू धर्मावलंबियों द्वारा पवित्र माने जाने वाले शहर गया को बुद्ध, तिलकुट और 'पिंड दान के धार्मिक कर्मकांड के लिए जाना जाता है। पटना से दक्षिण में 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गया शहर का बोद्धों और हिन्दुओं की धार्मिक गतिविधियों के लिहाज से ऐतिहासिक महत्व है। दोनों धर्म के लोग अपने धार्मिक कर्मकांड करने यहां हर साल आते हैं। फाल्गु या निरंजना नदी के तट पर स्थित इस शहर को हिन्दुओं में पूर्वजों को मोक्ष दिलाने के लिए पिंड दान के लिए
सबसे महत्वपूर्ण जगह माना जाता है। पिंड दान हर साल हिन्दू पंचांग के अश्विन महीने :सितंबर-अक्तूबर: में किया जाता है। जिस अवधि में पिंड दान किया जाता है उसे 'पितृ पक्षÓ के रूप में जाना जाता है और दशहरा शुरू होने के दस दिन पहले यह समाप्त हो जाता है। इस अवधि को शादी, व्यापार और दूसरी गतिविधियों के लिए अशुभ माना जाता है। गया जिले से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बोधगया को बौद्ध श्रद्धालु सबसे पवित्र जगहों में से एक मानते हैं। यहां महाबोधि मंदिर और महोबोधि वृक्ष है जहां गौतम बुद्ध को ज्ञान मिला था। 2002 में महाबोधि मंदिर को यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थल घोषित किया था। इतिहासकारों के अनुसार ज्ञान मिलने के 250 साल बाद अशोक यहां आए थे जिस दौरान मूल महाबोधि मंदिर का निर्माण किया गया था। बाद में इसका जीर्णोद्धार किया गया। महाबोधि मंदिर के अलावा यहां कई छोटे-बड़े मदिर हैं। इनमें थाई मंदिर, कर्म मंदिर, दाईजोक्यो बुद्ध मंदिर, 80-फुट मंदिर, निप्पन मंदिर आदि शामिल हैं। वहीं शहर की यात्रा के अनुभव को यहां का प्रसिद्ध 'तिलकुटÓ मीठा बनाता है। यह तिल औैर चीनी के मिश्रण से बनता है। एक स्थानीय विक्रेता विनोद केशरी ने कहा, ''गया और तिलकुट दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। गया का तिलकुट देश में सबसे अच्छा और बेजोड़ होता है।ÓÓ उसने कहा, ''छठ पूजा (आमतौर पर नवंबर) के समय तिलकुट का मौसम शुरू हो जाता है और यह मकर संक्रांति :मध्य जनवरी: तक मिलता है।ÓÓ विष्णुपद मंदिर फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित यह मंदिर पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान विष्णु के पदचिन्हों पर किया गया है। यह मंदिर 30 मीटर ऊंचा है जिसमें आठ खंभे हैं। इन खंभों पर चांदी की परतें चढ़ाई हुई है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु के 40 सेंटीमीटर लंबे पांव के निशान हैं। इस मंदिर का 1787 में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई ने नवीकरण करवाया था। पितृपक्ष के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की काफी भीड़ जुटती है। जामा मस्जिद जामा मस्जिद बिहार की सबसे बड़ी मस्जिद है। यह तकरीबन 200 साल पुरानी है। इसमे हजारों लोग साथ में नमाज अदा कर सकते है। बिथो शरीफ मुख्य नगर से 10 कि मी दूर गया पटना मार्ग पर स्थित एक पवित्र धर्मिक स्थल है। यहा नवी सदी हिजरी मे चिशती अशरफि सिलसिले के प्रख्यात सूफी सत हजरत मखदूम सयद दर्वेश अशरफ ने खानकाह अशरफिया की स्थापना की थी। आज भी पूरे भारत से श्रदालु यहा दर्शन के लिये आते है। हर साल इस्लामी मास शाबान की 10 तारीख को हजरत मखदूम सयद दर्वेश अशरफ का उर्स मनाया जाता है। बानाबर (बराबर)पहाड़ गया से लगभग 20 किलोमीटर उत्तर बेलागंज से 10 किलोमीटर पूरब मे स्थित है। इसके ऊपर भगवान शिव का मन्दिर है, जहाँ हर वर्ष हजारों श्रद्धालु सावन के महीने मे जल चढ़ते है। कहते हैं इस मन्दिर को बानासुर ने बनवाया था। पुन: सम्राट अशोक ने मरम्मत करवाया। इसके नीचे सतघरवा की गुफा है, जो प्राचीन स्थापत्य कला का नमूना है। इसके अतिरिक्त एक मार्ग गया से लगभग 30 किमी उत्तर मखदुमपुर से भी है। इस पर जाने हेतु पातालगंगा, हथियाबोर और बावनसीढ़ी तीन मार्ग है, जो क्रमश: दक्षिण, पश्चिम और उत्तर से है, पूरब में फलगू नदी है। कोटेस्वरनाथ यह अति प्राचीन शिव मन्दिर मोरहर नदी के किनारे मेन गांव में स्थित है। यहां हर वर्ष शिवरात्रि में मेला लगता है। यहाँ पहुँचने हेतु गया से लगभग 30 किमी उत्तर पटना-गया मार्ग पर स्थित मखदुमपुर से पाईबिगहा समसारा होते हुए जाना होता है। गया से पाईबिगहा के लिये सीधी बस सेवा उपलब्ध है। पाईबिगहा से इसकी दूरी लगभग 2 किमी है। सूर्य मंदिर सूर्य मंदिर प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर के 20 किलोमीटर उत्तर और रेलवे स्टेशन से 3 किलोमीटर दूर स्थित है। भगवान सूर्य को समर्पित यह मंदिर सोन नदी के किनारे स्थित है। दिपावली के छह दिन बाद बिहार के लोकप्रिय पर्व छठ के अवसर पर यहां तीर्थयात्रियों की जबर्दस्त भीड़ होती है। इस अवसर पर यहां मेला भी लगता है। ब्रह्मयोनि पहाड़ी इस पहाड़ी की चोटी पर चढऩे के लिए 440 सीढिय़ों को पार करना होता है। इसके शिखर पर भगवान शिव का मंदिर है। यह मंदिर विशाल बरगद के पेड़ के नीचे स्थित हैं जहां पिंडदान किया जाता है। इस स्थान का उल्लेख रामायण में भी किया गया है। दंतकथाओं पर विश्वास किया जाए तो पहले फल्गु नदी इस पहाड़ी के ऊपर से बहती थी। लेकिन देवी सीता के शाप के प्रभाव से अब यह नदी पहाड़ी के नीचे से बहती है। यह पहाड़ी हिन्दुओं के लिए काफी पवित्र तीर्थस्थानों में से एक है। यह मारनपुर के निकट है बराबर गुफा यह गुफा गया से 20 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। इस गुफा तक पहुंचने के लिए 7 किलोमीटर पैदल और 10 किलोमीटर रिक्शा या तांगा से चलना होता है। यह गुफा बौद्ध धर्म के लिए महत्वपूर्ण है। यह बराबर और नागार्जुनी श्रृंखला के पहाड़ पर स्थित है। इस गुफा का निर्माण बराबर और नागार्जुनी पहाड़ी के बीच सम्राट अशोक और उनके पोते दशरथ के द्वारा की गई है। इस गुफा उल्लेख ईएम फोस्टर की किताब, पैसेज टू इंडिया में भी किया गया है। इन गुफाओं में से 7 गुफाएं भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरख में है। महाबोधि मंदिर यह मंदिर मुख्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान हे। इस मंदिर में बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूत्र्ति स्थापित है। यह मूत्र्ति पदमासन की मुद्रा में है। यहां यह अनुश्रुति प्रचिलत है कि यह मूत्र्ति उसी जगह स्थापित है जहां बुद्ध को ज्ञान निर्वाण (ज्ञान) प्राप्त हुआ था। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है। ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राकृतिक दृश्यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्षु ध्यान साधना करते हैं। आम लोग इस पार्क में मंदिर प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं। इस मंदिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्ताह व्यतीत किया था। जातक कथाओं में उल्लेखित बोधि वृक्ष भी यहां है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य मंदिर के पीछे स्थित है। कहा जाता बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। मंदिर समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है। मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की 7 फीट ऊंची एक मूत्र्ति है। यह मूत्र्ति विजरासन मुद्रा में है। इस मूत्र्ति के चारों ओर विभिन्न रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूत्र्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करते हैं। कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और इसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा था। इस मूत्र्ति की आगे भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हुए हैं। बुद्ध के इन पदचिन्हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़ा अवस्था में बिताया था। यहां पर बुद्ध की इस अवस्था में एक मूत्र्ति बनी हुई है। इस मूत्र्ति को अनिमेश लोचन कहा जाता है। मुख्य मंदिर के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्य बना हुआ है। मुख्य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद तीसरा सप्?ताह व्यतीत किया था। अब यहां पर काले पत्थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है। महाबोधि मंदिर के उत्तर पश्चिम भाग में एक छतविहीन भग्नावशेष है जो रत्नाघारा के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्ताह व्यतीत किया था। दन्तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे अपने पताके में किया है। माना जाता है कि बुद्ध ने मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवा सप्ताह व्यतीत किया था। बुद्ध ने छठा सप्ताह महाबोधि मंदिर के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा क्षील के नजदीक व्यतीत किया था। यह क्षील चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है। इस क्षील के मध्य में बुद्ध की मूत्र्ति स्थापित है। इस मूत्र्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है। इस मूत्र्ति के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने तल्लीन थे कि उन्हें आंधी आने का ध्यान नहीं रहा। बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो सांपों का राजा मूचालिंडा अपने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की। इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना सांतवा सप्ताह इसी वृक्ष के नीचे व्यतीत किया था। यहीं बुद्ध दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्यापारियों से मिले थे। इन व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की। इन प्रार्थना के रुप में बुद्धमं शरणम गच्छामि (मैं अपने को भगवान बुद्ध को सौंपता हू) का उच्चारण किया। इसी के बाद से यह प्रार्थना प्रसिद्ध हो गई। तिब्बतियन मठ महाबोधि मंदिर के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित जोकि बोधगया का सबसे बड़ा और पुराना मठ है 1934 ई. में बनाया गया था। बर्मी विहार (गया-बोधगया रोड पर निरंजना नदी के तट पर स्थित) 1936 ई. में बना था। इस विहार में दो प्रार्थना कक्ष है। इसके अलावा इसमें बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा भी है। इससे सटा हुआ ही थाई मठ है (महाबोधि मंदिर परिसर से 1किलोमीटर पश्चिम में स्थित)। इस मठ के छत की सोने से कलई की गई है। इस कारण इसे गोल्डेन मठ कहा जाता है। इस मठ की स्थापना थाईलैंड के राजपरिवार ने बौद्ध की स्थापना के 2500 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में किया था। इंडोसन-निप्पन-जापानी मंदिर महाबोधि मंदिर परिसर से 11.5 किलोमीटर दक्षिणपश्चिम में स्थित मंदिर का निर्माण 1972-73 में हुआ था। इस मंदिर का निर्माण लकड़ी के बने प्राचीन जापानी मंदिरों के आधार पर किया गया है। इस मंदिर में बुद्ध के जीवन में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं को चित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। चीनी मंदिर (महाबोधि मंदिर परिसर के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित) का निर्माण 1945 ई. में हुआ था। इस मंदिर में सोने की बनी बुद्ध की एक प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर का पुनर्निर्माण 1997 ई. किया गया था। जापानी मंदिर के उत्तर में भूटानी मठ स्थित है। इस मठ की दीवारों पर नक्काशी का बेहतरीन काम किया गया है। यहां सबसे नया बना मंदिर वियतनामी मंदिर है। यह मंदिर महाबोधि मंदिर के उत्तर में 5 मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 2002 ई. में किया गया है। इस मंदिर में बुद्ध के शांति के अवतार अवलोकितेश्वर की मूत्र्ति स्थापित है। इन मठों और मंदिरों के अलावा के कुछ और स्मारक भी यहां देखने लायक है। इन्हीं में से एक है भारत की सबसे ऊंचीं बुद्ध मूत्र्ति जो कि 6 फीट ऊंचे कमल के फूल पर स्थापित है। यह पूरी प्रतिमा एक 10 फीट ऊंचे आधार पर बनी हुई है। स्थानीय लोग इस मूत्र्ति को 80 फीट ऊंचा मानते हैं। आसपास के दर्शनीय स्थल बोधगया आने वालों को राजगीर भी जरुर घूमना चाहिए। यहां का विश्व शांति स्तूप देखने में काफी आकर्षक है। यह स्तूप ग्रीधरकूट पहाड़ी पर बना हुआ है। इस पर जाने के लिए रोपवे बना हुआ। इसका शुल्क 25 रु है। इसे आप सुबह 8 बजे से दोपहर 12.50 बजे तक देख सकते हैं। इसके बाद इसे दोपहर 2 बजे से शाम 5 बजे तक देखा जा सकता है। शांति स्तूप के निकट ही वेणु वन है। कहा जाता है कि बुद्ध एक बार यहां आए थे। राजगीर में ही प्रसद्धि सप्तपर्णी गुफा है जहां बुद्ध के निर्वाण के बाद पहला बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया था। यह गुफा राजगीर बस पड़ाव से दक्षिण में गर्म जल के कुंड से 1000 सीढियों की चढाई पर है। बस पड़ाव से यहां तक जाने का एक मात्र साधन घोड़ागाड़ी है जिसे यहां टमटम कहा जाता है। इन सबके अलावा राजगीर मे जरासंध का अखाड़ा, स्वर्णभंडार (दोनों स्थल महाभारत काल से संबंधित है) तथा विरायतन भी घूमने लायक जगह है। नालन्दा यह स्थान राजगीर से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्राचीन काल में यहां विश्व प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था। अब इस विश्वविद्यालय के अवशेष ही दिखाई देते हैं। लेकिन हाल में ही बिहार सरकार द्वारा यहां अंतरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय स्थापित करने की घोषणा की गई है जिसका काम प्रगति पर है। यहां एक संग्रहालय भी है। इसी संग्रहालय में यहां से खुदाई में प्राप्त वस्तुओं को रखा गया है। नालन्दा से 5 किलोमीटर की दूरी पर प्रसिद्ध जैन तीर्थस्थल पावापुरी स्थित है। यह स्थल भगवान महावीर से संबंधित है। यहां महावीर एक भव्य मंदिर है। नालन्दा-राजगीर आने पर इसे जरुर घूमना चाहिए। नालन्दा से ही सटा शहर बिहार शरीफ है। मध्यकाल में इसका नाम ओदन्तपुरी था। वर्तमान में यह स्थान मुस्लिम तीर्थस्थल के रुप में प्रसिद्ध है। यहां मुस्लिमों का एक भव्य मस्जिद बड़ी दरगाह है। बड़ी दरगाह के नजदीक लगने वाला रोशनी मेला मुस्लिम जगत में काफी प्रसिद्ध है। बिहार शरीफ घूमने आने वाले को मनीराम का अखाड़ा भी अवश्य घूमना चाहिए। स्थानीय लोगों का मानना है अगर यहां सच्चे दिल से कोई मन्नत मांगी जाए तो वह जरुर पूरी होती है।

Sunday 20 January 2013

अम्बा वाला अर्थात अम्बाला

हरियाणा में स्थित अम्बाला बहुत खूबसूरत स्थान है। कहा जाता है कि अम्बाला की स्थापना अम्बा राजपूतों ने 14वीं शताब्दी में की थी। अम्बाला शहर भारत के हरियाणा राज्य का एक मुख्य एवं ऐतिहासिक शहर है। यह भारत की राजधानी दिल्ली से दो सौ किलो मीटर उत्तर की ओर शेरशाह सूरी मार्ग(राष्ट्रीय राजमार्ग नम्बर 1) पर स्थित है। अंबाला छावनी एक प्रमुख रेलवे जंक्शन है। अंबाला जिला हरियाणा एंव पंजाब राज्यों की सीमा पर स्थित है। अंबाला छावनी देश का प्रमुख सैन्य आगार है। भौगोलिक स्थिति के कारण पर्यट्न के क्षेत्र में भी अंबाला का मह्त्वपूर्ण योगदान है। अम्बाला नाम की उत्पत्ति शायद महाभारत की अम्बालिका के नाम से हुई होगी। आज के जमाने में अम्बाला अपने विज्ञान सामग्री उत्पादन व मिक्सी उद्योग के लिए प्रसिद्ध है। अम्बाला को विज्ञान नगरी कह कर भी पुकारा जाता है कयोंकि यहां वैज्ञानिक उपकरण उद्योग केंद्रित है। भारत के वैज्ञानिक उपकरणों का लगभग चालीस प्रतिशत उत्पादन अम्बाला में ही होता है। एक अन्य मत यह भी है कि यहां पर आमों के बाग बगीचे बहुत थे, जिससे इस का नाम अम्बा वाला अर्थात अम्बाला पड़ गया। इसके पास आमों की खेती की जाती है। बइन इकाईयों में धातु तैयार करने वालीए रसोईघर में काम आने वाले उपकरण बनाने वाली और पानी के पम्प बनाने वाली इकाईयां प्रमुख हैं। इसके पास ही बराड़ा, नागल, मुलाणा, साहा और शहजादपुर आदि शहर भी हैं। पर्यटक चाहें तो इन शहरों में भी घूमने जा सकते हैं। इसके दक्षिण-पूर्व में यमुनानगर, दक्षिण में कुरूक्षेत्र और पश्चिम में पटियाला व रोपड़ स्थित हैं। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई 900 फीट है। यह धार्मिक पर्यटन स्थलों से भरा पड़ा है। पर्यटक चाहें तो इन पर्यटक स्थलों की यात्रा पर जा सकते हैं। पर्यटक यहां क्या देखें अम्बाला अपने धार्मिक तीर्थस्थलों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इन स्थलों में मन्दिर, गुरूद्वारे, चर्च और दरगाह-मस्जिदें प्रमुख हैं। पर्यटक यहां पर हिन्दुओं की देवी भवानी का मन्दिर देख सकते हैं। इस मन्दिर का नाम भवानी अम्बा है। मन्दिर देखने के बाद पर्यटक गुरूद्वारे देख सकते हैं। बादशाही बाग गुरूद्वारा, शीशगंज गुरूद्वारा, मंजी साहिब गुरूद्वारा और संगत साहिब गुरूद्वारा यहां के प्रमुख गुरूद्वारे हैं। सिक्ख गुरूओं गुरू गोबिंद सिंह, गुरू तेगबहादुर और गुरू हरगोबिंद सिंह का भी इन गुरूद्वारों से संबंध रहा है। गुरूद्वारों के अलावा यहां का लखीशाह, तैक्वाल शाह और सेंट पॉल चर्च भी पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। चर्च के पास ही एक कब्रिस्तान भी है। यह सब देखने के बाद पर्यटक अम्बाला कैंट में स्थित पटेल पार्क और अम्बाला शहर का सिटी पार्क घूमने जा सकते हैं। इन बगीचों के पास बुरिया में रंगमहल भी है। यह महल बहुत खूबसूरत है। इस महल की आर्क, स्तम्भ और नक्काशी पर्यटकों को बहुत पसंद आती है। इसका निर्माण शाहजहां के शासनकाल में किया गया था। गुरुदवारा श्री बादशाही बाग साहिब : अम्बाला शहर में सथित है। गुरुदवारा साहिब हिसार को जाने वाली सड़क के पास सथित है। इस अस्थान पर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज फागुन की पूरनमाशी को आए थे। गुरु साहिब के साथ मामा कृपाल चंद जीए कई सिख, नीला घोड़ा तथा सफ़ेद बाज़ था। गुरु साहिब लखनोर से शिकार खेलते हुए यहाँ आए। शहर का पीर अमीर दीन अपने बाग़ में बाज़ लेकर खड़ा था। जब उसने गुरु साहिब का सफ़ेद बाज़ देखा तो पीर का मन बेईमान हो गया द्य उसने गुरु साहिब को कहा कि मेरे बाज़ के साथ अपने बाज़ को लड़वाओ, गुरु साहिब अन्तर्यामी थे, समझ गए कि पीर नीती से बाज़ लेना चाहता है।

Wednesday 16 January 2013

हरियाणा यात्रा : वैभवशाली आकर्षक रेवाड़ी

हरियाणा के रेवाड़ी का अतीत बड़ा वैभवशाली रहा है। यह प्राचीन शहर अपने आंचल में स्वर्णिम अतीत समेटे हुए है। यह नगर प्राचीनकाल में न केवल राजनैतिक बल्कि कला, साहित्य, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक गतिविधियों का भी केंद्र रहा है। यहां पर हेमू की हवेली, राव तुलाराम का महल, रानी की ड्योढ़ी, तेज सरोवर, हनुमान मंदिर एवं घंटेश्वर मंदिर आदि रेवाड़ी की प्राचीन भव्यता एवं स्वर्णिम इतिहास के साक्षी हैं। यह दिल्ली से मात्र 80 किमी. की दूरी पर स्थित है। महाभारत के अनुसार यह माना जाता है कि पहले यहां पर रेवात नामक राजा का राज था। उसकी पुत्री का नाम रेवती था। वह उसे प्यार से रेवा पुकारता था। उसी के नाम पर उसने इसका नरम रेवा वाड़ी रखा था। बाद में इसका नाम रेवा वाड़ी से बदलकर रेवाड़ी हो गया।
आधुनिक रेवाड़ी की स्थापना 1 नवम्बर 1989 ई. में की गई। इसके उत्तर में रोहतक, पश्चिम में महेन्द्रगढ़, पूर्व में गुडग़ांव और दक्षिण-पूर्व में राजस्थान का अल्वर स्थित है। हाल के दिनों में रेवाड़ी का जबरदस्त विकास हुआ है। विशेष तौर पर इसके धारूहेड़ा क्षेत्र में कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की स्थापना की गई हैं। इन कम्पनियों में इण्डो निशीयन फूड्स लिमिटेड, सोनी इण्डिया लिमिटेड, अशाही इण्डिया और दुपहिया वाहन बनाने वाली विश्व की सबसे बड़ी कम्पनी हीरो होंडा प्रमुख हैं। रेवाड़ी में क्या देखें लाल मस्जिद
रेवाड़ी का लाल मस्जिद पर्यटकों को अपने ओर आकर्षित करता है। यह  मस्जिद रेवाड़ी की अदालत के पास स्थित है। यह मस्जिद बहुत खूबसूरत है और इसे देखने के लिए पर्यटक दूर-दूर से यहां आते हैं। इसका निर्माण अकबर के शासनकाल में 1570 ई. में किया गया था। मस्जिद के पास दो खूबसूरत दर्शनीय स्थल भी हैं। पर्यटक चाहें तो इनकी सैर के लिए जा सकते हैं।
बाग वाला तालाब
यह तालाब पुरानी तहसील के पास स्थित है। इसका निर्माण राव गुर्जर के पुत्र राम अहीर ने कराया था। लेकिन अब यह तालाब सूख चुका है।
बड़ा तालाब
बड़ा तालाब को राव तेज सिंह तालाब के नाम से भी जाना जाता है। यह रेवाड़ी के टाउन हॉल के पास स्थित है। इसका निर्माण राव तेज सिंह ने 1810-1815 ईण्. में कराया था। तालाब में पानी की आपूर्ति वर्षा के पानी और भूमिगत जलधाराओं द्वारा होती है। यहां महिलाओं और पुरूषों के स्नान करने के लिए अलग-अलग व्यवस्था की गई है। तालाब के पास हनुमान मन्दिर स्थित है। पर्यटकों और श्रद्धालुओं में यह मन्दिर बहुत लोकप्रिय है।
हनुमान मंदिर की प्राचीन मंदिर
अठारहवीं सदी में बने विशाल तालाब तेज सरोवर पर बाबा हनुमान का प्राचीन मंदिर स्थित है। देखने में तो यह मंदिर केवल डेढ़ सौ वर्ग गज भूमि पर बना है लेकिन वीर हनुमान की अपार कृपा के कारण यहां मंदिर परिसर में रोजाना भक्तजनों का जमावड़ा लगा रहता है। मंदिर की प्राचीनता तेज सरोवर के समान है। मंदिर के प्रति लोगों की श्रद्धा, आस्था और विश्वास की त्रिवेणी की बात करें तो यहां न केवल आस-पास के श्रद्धालु ही पूजा-अर्चना करने और मुराद मांगने आते हैं बल्कि दूसरे राज्यों से भी लोग मंदिर में हनुमान के दर्शनार्थ आते हैं।
माना जाता है कि पवनपुत्र हनुमान का भक्त राजस्थान से दिल्ली हनुमान की मूर्ति बैलगाड़ी में रखकर ले जा रहा था। वह भक्त रेवाड़ी के तेज सरोवर पर पहुंचा तो आराम करने के बाद जब वह जाने लगा तो बैलगाड़ी टस से मस भी नहीं हुई। उसने बैलों को खूब पीटा पर बैल हिले तक नहींए तब उस श्रद्धालु ने हनुमान की मर्जी जानकर यहीं पर मूर्ति को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक रामभक्त हनुमान की यह मूर्ति आस्था का केंद्र बनी हुई है। श्रद्धा, आस्था और विश्वास की त्रिवेणी के निरंतर बहने के कारण ही बड़ के नीचे स्थापित मूर्ति के स्थान पर आज एक सुंदर मंदिर विराजमान है। मूर्ति स्थापना से लेकर आज तक इस मंदिर की रेख-देख महंत परिवार करता आ रहा है। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि इस मंदिर में हनुमान की दो मूर्तियां हैं। यदि छोटी वाली मूर्ति के अंगूठे पर किसी भक्त द्वारा चढ़ाया गया गोला-कुंजा ठहर गया तो समझो उसकी नैया बजरंगी अवश्य पार लगाते हैं। इसके अलावा सिंदूर भी चढ़ाया जाता है। मान्यता है कि बूंदी का प्रसाद और गोले-कुंजे आदि को भक्तिभाव से ओत-प्रोत होकर हनुमान की मूर्ति पर चढ़ाकर जो मन्नत मांगता है तो बाबा उसे खाली हाथ नहीं जाने देते। इसलिए हर मंगलवार बड़े तालाब पर स्थित हनुमान मंदिर में दूर-दूर से भक्तजन आकर प्रसाद ओर ध्वजा चढ़ाते हैं। इस प्राचीन मंदिर में हरियाणा के अलावा दिल्ली, पंजाब, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और आंध्रप्रदेश के साथ-साथ दुबई, जापान और अमेरिका से भी भक्तजन मन्नत मांगने आते हैं। मंदिर में मंगलवार को भजन-कीर्तन और भंडारा होता है जबकि हर रविवार को रामायण पाठ होता है। सबसे मनोहारी दृश्य तो हनुमान जयंती के अवसर पर होता है। बाबा की सुंदर झांकी निकाली जाती है।
घंटेश्वर मन्दिर
यह रेवाड़ी का सबसे प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। यह मंदिर शहर के बीचोंबीच स्थित है। पर्यटक इस मन्दिर में सनातन धर्म के देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के दर्शन सकते हैं। यह तीन मंजिला इमारत है और बहुत खूबसूरत है। श्रद्धालु प्रतिदिन इस मन्दिर में पूजा करने आते हैं।
कैसे जाएं
वायु मार्ग
 हवाई जहाज द्वारा भी पर्यटक आसानी से रेवाड़ी तक पहुंच सकते हैं। दिल्ली का इंदिरा गांधी अन्र्तराष्ट्रीय हवाई अड्डा रेवाड़ी से मात्र 80 किमी. की दूरी पर स्थित है।
रेल मार्ग
 रेवाड़ी पहुंचने के लिए रेलमार्ग भी काफी अच्छा विकल्प है। पर्यटकों की सुविधा के लिए यहां पर रेलवे स्टेशन का निर्माण किया गया है।
सड़क मार्ग
 दिल्ली.जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 8 द्वारा पर्यटक आसानी से रेवाड़ी तक पहुंच सकते हैं।

Saturday 5 January 2013

धान का कटोरा रोहतास

रोहतास अत्यंत ही मनोरम और रमणीक स्थल के लिए विख्यात है। धान के कटोरे के रूप में बिहार के मानचित्र पर रोतहास की पहचान है। इसका जिला मुख्यालय सासाराम है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। मगध, अफगान, शेर शाह और कई अन्य शासकों ने इस जगह पर शासन किया था। पहले रोहतास शाहबाद जिले का एक हिस्सा था। लेकिन 1972 ई. में इस जिले को स्वतंत्र रूप से जिले के रूप में पहचान मिली। रोहतास का इतिहास पर्यटकों को काफी आकर्षित करता है। यहां आकर आपको लगेगा कि आप यही के हो जाए। रोहतास भोजपुर और बक्सर जिला के उत्तर, पलामू और गरवा जिले के दक्षिण, गया जिले के पूर्व तथा कैमूर जिले के पश्चिम से घिरा हुआ है।

क्या देखें
रोहतास गढ़
 जिला मुख्यालय के पश्चिम से ५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दंतकथाओं के अनुसार, इस जगह का नाम राजा हरिशचन्द्र के पुत्र रोहितासव के नाम पर रखा लिखा गया था। रोहितासव ने यहां पर एक किले का निर्माण करवाया था। यहां के स्थानीय लोगों का मानना है कि रोहतास का अर्थ शुष्क भूमि होता है। रोहतास में एक विशाल किला है। शेरशाह ने रोहतासव के किले को 1538 ई. में कब्जाया था। यह अकबरपुर का जिला मुख्यालय है। यहां पर मोहम्मदन संत शेख शाह बाबल की मजार भी है। रोहतास किले के उत्तर से एक किलोमीटर की दूरी पर बावन तालाब है। यह काफी प्राचीन मंदिरों में से है। पुराने समय में इस गांव के चारों ओर 52 कुंड थे। लेकिन वर्तमान समय में इस प्रकार का कोई तथ्य नहीं मिलता है। यहां पर एक प्राचीन शिव मंदिर भी है। माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण राजा हरिश्चन्द्र ने करवाया था। इस मंदिर को चौरासन मंदिर के नाम से जाना जाता है। सासाराम सासाराम रोहतास जिले का मुख्यालय है। सासाराम ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। शहर के समीप ही कई स्मारक है। यहीं पर स्थित है शेरशाह का मकबरा जो काफी प्रसिद्ध है। यह मकबरा पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। मकबरे पर हुई वास्तुकला काफी खूबसूरत है जो काफी संख्या में पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर खींचती है। इसके देखने के लिए देश-विदेश के हजारों पर्यटक आते हैं। इस मकबरे का निर्माण शेर शाह ने सोलहवीं शताब्दी के मध्य में करवाया था। पत्थरों से बना यह मकबरा विशाल कुंड के मध्य स्थित भारत का दूसरा ऊंचा मकबरा है। इस मकबरे को सूखा रोजा के नाम से भी जाना जाता हे। साराराम के समीप पर्वत पर स्थित चांद-तान-पीर पर अशोक अभिलेख मौजूद है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
अकबरपुर
 रोहतास के किले से पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित कैमूर पर्वत में यह जगह स्थित है। कहा जाता है कि इस जगह का नाम मुगल शासक अकबर के नाम पर रखा गया है। यह जगह रोहतास जिला मुख्यालय के काफी समीप स्थित है। इस जगह पर शासक शाहजहां के समय के मलिक विसहाल खान का मकबरा है। मलिक विसहाल खान रोहतास गढ़ के दारोगा थे।
याकशिनी भगवती
यहां पर देवी दुर्गा का प्रसिद्ध मंदिर है। इन्हें याकशिनी भगवती के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर भगवान शिराक भानखंडी महादेवन का प्राचीन मंदिर भी है। यह मंदिर दिनार खण्ड के पूर्व से सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। काफी संख्या में श्रद्धालु देवी मां से आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए मंदिर में आते हैं।
 शेरगढ़
चैनारी के दक्षिण से 13 किलोमीटर की दूरी पर शेरगढ़ स्थित है। शेर शाह के शासन के दौरान यह सैनिक छावनी था। यहां पर एक किला है जो वर्तमान समय में पूरी तरह से विध्वंस हो चुका है।
कैसे पहुंचे रोहतास

  वायु मार्ग
 सबसे निकटतम हवाई अड्डा पटना स्थित जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। राजधानी पटना से रोहतास 147 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके अतिरिक्त गया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा द्वारा भी रोहतास पहुंच सकते हैं। गया से रोहतास लगभग 125 किलोमीटर की दूरी पर है।
रेल मार्ग
 यहां आप रेलमार्ग से भी आ सकते हैं। रोहतास रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से पहुंचा जा सकता है। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन सासाराम स्थित है।
 सड़क मार्ग 
 भारत के कई प्रमुख शहरों से रोहतास सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है।

Friday 4 January 2013

पर्यटन की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण औरंगाबाद

पर्यटन की दृष्टि से महत्‍वपूर्ण जिला

बिहार के गया जिले से अलग हुए औरंगाबाद किसी समय में मगध साम्राज्‍य का अभिन्‍न भाग हुआ करता था। राजधानी पटना से दक्षिण पश्चिम में स्थित यह जिला पर्यटन की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण माना जाता है। प्रसिद्व ग्रांट ट्रैंक रोड के किनारे बसे इस शहर में पर्यटक मदनपुर की पहाड़ी, बौद्व विहार, देव का प्रसिद्व सूर्य मंदिर, देवकुंड आदि जैसे जगह घूम सकते है।                                                                       
क्‍या देखें
देव
- औंरगाबाद शहर से 10 किमी. दक्षिणपूर्व में स्थित देव का प्रसिद्व सूर्य मंदिर 15वीं शताब्‍दी का माना जाता है। कहा जाता है कि उमगा के चन्‍द्रवंशी राजा भैरवेन्‍द्र सिंह ने इस 100 फीट उंचे मंदिर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर के संबंध में यह भी धारणा है कि यहां के बह्म कुंड में स्‍नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। क‍ार्तिक माह में अगल-बगल के जिले से भी लोग यहां प्रसिद्व छठ पूजा करने आते है।

देवकुंड- यह शहर से दक्षिणपूर्व और जहानाबाद जिले के सीमा पर स्थित है। इस कुंड को ऐतिहासिक स्‍थल माना जाता है। यह पर एक बहुत प्राचीन भगवान शिव का मंदिर है जिसका उल्‍लेख पुराण में मिलता है। शिवरा‍त्रि के समय हजारों की संख्‍या में श्रदालु यहां भगवान शिव पर जल चढ़ाने यहां आते है।
उमगा- यह औरंगाबाद से 24 किमी. पूरब में स्थित है और वैष्‍णव मंदिर के लिए प्रसिद्व है। इस मंदिर की दीवार ग्रेनाइट पत्‍थर से निर्मित है। देव तथा यहां के मंदिर को लगभग एक ही तरीके से डिजाइन किया गया है। 
अमझार शरीफ- औरंगाबाद से 10 किमी. की दूरी पर स्थित अमझार शरीफ इस्‍लाम धर्म को मानने वालों का महत्‍वपूर्ण स्‍थल माना जाता है। यह दाउदनगर-गया रोड पर स्थित है। यहां पर एक बहुत ही प्राचीन मजार हजरत सैदाना मोहम्‍मद जिलानी अमझारी कादरी की याद में बना हुआ है। हरेक साल जून के पहले सप्‍ताह में इनका हिज उर्स मुबारक (वार्षिक समारोह) मनाया जाता है। इस दिन हजारों की संख्‍या में पूरे भारत वर्ष से इस्‍लाम धर्म को मानने वाले लोग जुटते है। 
सिरिस- किसी समय में इस जगह पर शेरशाह और मुगल साम्राज्‍य का आधिपत्‍य माना जाता था। यहां पर अब एक औरंगजेब का बनवाया हुआ एक मस्जिद है जिस पर पारसी में अभिलेख्‍ा खुदा हुआ है।
इसके अलावा पर्यटक यहां पर पवई, माली, चंदनगढ़ और पीरु जैसे जगह घूम सकते है।
कब जाएं- अक्‍टूबर से मार्च तक
कैसे जाएं
वायु मार्ग
- यहां का सबसे नजदीकी हवाई अड्डा गया जिले में स्थित है। पर्यटक राजधानी पटना से भी यहां आ सकते है। 
 
रेल मार्ग- औरंगाबाद शहर में अनुग्रह नारायण स्‍टेशन है लेकिन गया से सीधी रेल सेवा उपलब्‍ध है जोकि यहा से 79 किमी. की दूरी पर स्थित है।

सड़क मार्ग- यहां से राजधानी पटना के अलावा बिहार के अनेक जिलों के लिए बस सेवा उपलब्‍ध है।

पुअर मैन दार्जलिंग पूर्णिया

इस जगह को पुअर मैन दार्जलिंग के नाम से भी जाना जाता है। पूर्णिया पर्यटन की दृष्टि से बिहार राज्य के प्रमुख जिलों में से हैं। पुराणदेवी मंदिर, बारह स्थान, धरहरा, गुलाब बाग और भवानीपुर आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। पूर्णिया जिले से दार्जलिंग पर्वत लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस कारण इस जगह को पुअर मैन दार्जलिंग के नाम से भी जाना जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। इस जगह पर मौर्य और गुप्त आदि शासकों ने काफी लम्बे समय तक राज किया। यह जिला अररिया जिले के उत्तर, कटिहार और भागलपुर जिले के दक्षिण, पश्चिम बंगाल के पश्चिम दिनाजपुर और किशजगंज के पूर्व तथा मधेपुरा व सहरसा जिले के पश्चिम से घिरा हुआ है।
कहां जाएं
पुराणदेवी मंदिर
 यह मंदिर त्रिपुरा सुंदरी का प्राचीन मंदिर है। त्रिपुरा सुंदरी देवी दुर्गा का ही एक रूप है। पूर्णिया शहर स्थित इस मंदिर के प्रति यहां लोगों में काफी श्रद्धा है। माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण राजा चंद्रा लाल सिंह ने करवाया था।
बनीली
 यह गांव पूर्णिया के उत्तर से लगभग 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कस्बा के उत्तर-पश्चिम में है। इस गांव में एक प्राचीन मंदिर और किला है।
बारह स्थान
 यह मंदिर भवानीपुर के समीप स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 1948 ई. में किया गया था। मंदिर में भगवान ब्रह्मा की पत्थर की बनी मूर्ति स्थापित है। प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर यहां मेले का आयोजन किया जाता है।
भवानीपुर
 पूर्णिया शहर के दक्षिण.पश्चिम से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर कृत्यानन्द नगर के समीप यह गांव स्थित है। यह गांव यहां स्थित देवी कामाख्या के मंदिर के लिए जाना जाता है। माना जाता है कि इस मंदिर में सच्चे दिल से प्रार्थना करने पर सारे रोगों से मुक्ति मिल जाती है। इसी कारण यहां भक्तों की भीड़ रहती है। प्रत्येक वर्ष चैत्र माह में यहां वार्षिक मेले का आयोजन किया जाता है।
धरहरा
 धामदहा के उत्तर-पूर्व से लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर धरहरा गांव स्थित है। यह बनमानखी बाजार से बस कुछ ही दूरी पर है। यह बाजार विशेषत: अपनी प्राचीन परम्परा के लिए जाना जाता है। इस गांव में एक प्राचीन किला है। जिसे साकेतगढ़ के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार इस किले का निर्माण राक्षस, राजा हिरण्यकश्यप ने करवाया था। यहां पर एक एकाश्मक भी है जिसे माणिकथन के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि माणिकथन स्तम्भ में से भगवान नरसिंह प्रकट हुए थे और उन्होंने हिरण्यकश्यप का वध किया था।
गुलाब बाग
 पूर्णिया रेलवे स्टेशन के समीप स्थित यह प्रमुख जूट बाजार है। प्रत्यके वर्ष काफी संख्या में यहां भिन्न.भिन्न मेलों का आयोजन किया जाता है।
मजरा
 यह गांव कृत्यानन्द नगर खण्ड में स्थित है। यहां पर एक सर्वोदय आश्रम और भगवान शिव का मंदिर है। प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि के अवसर पर शिव मंदिर में बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। काफी संख्या में लोग मंदिर में भगवान शिव के दर्शन करने के लिए आते हैं।
कहां ठहरें
पूर्णिया में ठहरने के लिए ज्यादा विकल्प नहीं है। इसलिए यहां आने वाले पर्यटक आमतौर पर इसके नजदीकी शहर पटना में ठहरते हैं। पटना के प्रमुख होटलों की सूची इस प्रकार है।
कैसे पहुंचे
वायु मार्ग
 यहां का सबसे निकटतम हवाई अड्डा पटना स्थित जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट है। पटना से पूर्णिया 313 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके अलावा, गया अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट, गया भी है। गया से पूर्णिया 319 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
रेल मार्ग
सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन कटिहार है। यह स्थान रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है।
सड़क मार्ग
 राष्ट्रीय राजमार्ग नम्बर 31 से पूर्णिया पहुंचा जा सकता है। भारत के कई प्रमुख शहरों जैसे उत्तर प्रदेश, बंगाल, आसाम, उड़ीसा और झारखंड आदि से पूर्णिया सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है।

Thursday 3 January 2013

धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्ध मधेपुरा


धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्ध मधेपुरा बिहार राज्य का एक जिला है। चंडी स्थान, सिंघेश्वर स्थान, श्रीनगर, रामनगर, बसन्तपुर, बिराटपुर और बाबा करु खिरहर आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से हैं। मधेपुरा का इतिहास कुषाण वंश के शासनकाल से सम्बन्धित है। प्राचीन समय में भांत समुदाय के लोग शंकरपुर खंड स्थित बसंतपुर और रायभीर गांव में रहते थे। मधेपुरा मौर्य वंश का ही एक हिस्सा था। इस बात का प्रमाण उद-किशनगंज स्थित मौर्य स्तम्भ में मिलता है। अकबर के समय की मस्जिद वर्तमान समय में सारसंदी गांव में स्थित है, जो कि इसके ऐतिहासिक महत्व को दर्शाती है। इसके अतिरिक्त, सिंकदर शाह भी इस जिले में घूमने के लिए आए थे। इसका जिला मुख्यालय मधेपुरा शहर है। यह जिला अररिया और सुपौल जिले के उत्तर, खगरिया और भागलपुर जिले के दक्षिण, पूर्णिया जिले के पूर्व तथा सहरसा जिले के पश्चिम से घिरा हुआ है
कहा जाता है कि पौराणिक काल में कोशी नदी के तट पर ऋषि श्रृंग का आश्रम था। ऋषि श्रृंग भगवान शिव के भक्त थे और वह आश्रम में भगवान शिव की प्रतिदिन उपासना किया करता था। श्रृंग ऋषि के आश्रम स्थल को श्रृंगेश्वर के नाम से जाना जाता था। कुछ समय बाद इस उस जगह का नाम बदलकर सिंहेश्वर हो गया। महाजनपद काल में मधेपुरा अंग एवं मौर्य वंश का हिस्सा था। इसका प्रमाण उदा-किशनगंज स्थित मौर्य स्तम्भ से मिलता है। बाद के वर्षों में मधेपुरा का इतिहास कुषाण वंश के शासनकाल से सम्बन्धित है। शंकरपुर प्रखंड के बसंतपुर तथा रायभीर गांवों में रहने वाले भांट समुदाय के लोग कुशान वंश के परवर्ती हैं। मुगल शासक अकबर के समय की मस्जिद वर्तमान समय में सारसंदी गांव में स्थित है, जो कि इसके ऐतिहासिक महत्व को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, सिंकंदर शाह भी इस जिले में घूमने के लिए आए थे।

प्रसिद्ध स्थल

सिंहेश्वर स्थान

यह मधेपुरा से आठ किलोमीटर उत्तर में समपूर्ण कोसी अंचल का महान शैव तीर्थ है। यहाँ का शिवलिंग अत्यंत प्रचीन है। वराहपुराण के उत्तर्राद्ध की एक कथा के अनुसार विष्णु ने इस शिवलिंग की स्थापना की थी। सिंहेश्वर के निकट ही कोसी तट पर सतोखर गांव है, जहाँ श्रृंग ऋषि ने 'द्वादश वर्षीय यज्ञÓ किया था जिसमें गुरुपत्नी अरुनधती के साथ राम की तीन माताएं आई थीं। इस यज्ञ का उल्लेख भवभूति ने 'उत्तर रामचरितÓ के प्रथमांक में किया है। इस यज्ञ के सारे साक्ष्य कोसी तीर पर सात कुंडों के रूप में मौजूद हैं । दो कुण्ड कोसी के पेट में समा गये हैं। खुदाई में राख के मोटी परत प्राप्त हुई है जो दीर्धकाल तक होने वाले यज्ञ के साक्ष्य हैं। सिंधेश्वर स्थान में तीन आर्योत्तर जातियाँ कुशाण, किरात और निषादों की संस्कृति का पुरा काल में ही विकास हुआ और यह शैव तीर्थ आदि काल से ही उन्हीं के द्वारा पुजित, संरक्षित एवं संरक्षित होता रहा।
श्रीनगर
मधेपुरा शहर से लगभग 22 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम में स्थित श्रीनगर एक गांव है। इस गांव में दो किले हैं। माना जाता है कि इनसे से एक किले का इस्तेमाल राजा श्री देव रहने के लिए किया करते थे। किले के पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर दो विशाल कुंड स्थित है। जिसमें पहले कुंड को हरसैइर और दूसर कुंड को घोपा पोखर के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त यहां एक मंदिर भी है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर में स्थित पत्थरों से बने स्तंभ इसकी खूबसूरती को और अधिक बढ़ाते हैं।
रामनगर
मुरलीगंज रेलवे स्टेशन से लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर रामनगर गांव है। यह गांव विशेष रूप से यहां स्थित देवी काली के मंदिर के लिए जाना जाता है। प्रत्येक वर्ष काली-पूजा के अवसर पर यहां बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है।
बसन्तपुर
मधेपुरा के दक्षिण से लगभग 24 किलोमीटर की दूरी पर बसंतपुर गांव स्थित है। यहां पर एक किला है जो कि पूरी तरह से विध्वंस हो चुका है। माना जाता है कि यह किला राजा विराट के रहने का स्थान था। राजा विराट के साले कीचक, द्रौपदी से यह किला छिन लेना चाहते थे। इसी कारण भीम ने इसी गांव में उसको मारा था।
बिराटपुर
 यह गांव देवी चंडिका के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। माना जाता है कि इस मंदिर का सम्बन्ध महाभारत काल से है। कहा जाता है कि इस मंदिर का प्रमुख द्वार विराट के महल की ओर है। 11वीं शताब्दी में राजा कुमुन्दानंद के सुझाव से इस मंदिर के बाहर पत्थर के स्तम्भ बनवाए गए थे। इन स्तम्भों पर अभिलेख देखे जा सकते हैं। सोनबरसा रेलवे स्टेशन से लगभग नौ किलोमीटर की दूरी पर बिराटपुर गांव है। इस बात में कोई शक नहीं है कि यह मंदिर काफी प्राचीन है। इसके साथ ही यहां पर दो स्तूप भी है। लगभग 300 वर्ष प्राचीन इस मंदिर में काफी संख्या में भक्तों की भीड़ रहती है। मंदिर के पश्चिम से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा पर्वत है। लोगों का मानना है कि कुंती और उनके पांचों पुत्र पांडव इस जगह पर रहे थे।
बाबा करु खिरहर बाबा करु खिरहर मंदिर का नाम एक प्रसिद्ध संत के नाम पर रखा गया था। बाबा करु खिरहर मंदिर महर्षि खण्ड के महपुरा गांव में स्थित है। आसाम,बंगाल, उत्तर प्रदेश एवं बिहार के आस-पास के जिलों से काफी संख्या में लोग यहां आते हैं।
कन्दहा का सूर्य मन्दिर
यह इस क्षेत्र का एकमात्र सूर्य मन्दिर है। यहाँ धेमुरा (धर्ममूला) नदी एक बड़े चैड़़े से आकार कन्दाहा और देवनगोपाल गाँव के मध्य होकर बहती है। कहा जाता है कि यहाँ भगवान शिव ने विवेक, बुद्धि तथा अदम्य संकल्प शक्ति का प्रतीक अपने तृतीय नयन से कामदेव का दहन किया था जिसमें सूर्य का तेज था। कन्दाहा में द्वादशादित्यों में प्रसिद्ध 'भवादित्यÓ का प्राचीन सूर्य मन्दिर है। यह कन्दर्प दहन का साक्षी भी है तथा अंग देश के निर्माण का श्रेय भी इसी स्थल को है। कन्दाहा के चारों ओर अनेक शिव मंदिर हैं जिसमें देवनवन महादेव अति विख्यात हैं। इस शिवलिंग को महाभारत के पश्चात वाणासुर ने स्थापित किया था। इसके अतिरिक्त चैनपुर में नीलकंठ महादेव, बनगाँव में भव्य शिव मंदिर महिषी के निकट नकुचेश्वर महादेव तथा मुख्य कोसी के पश्चिम कुश ऋषि द्वारा स्थापित कुशेश्वरनाथ का भव्य मंदिर महतवपूर्ण है ।
आवागमन
वायु मार्ग
यहां का सबसे निकटतम हवाई अड्डा पटना स्थित जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। पटना से मधेपुरा 234 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
रेल मार्ग
मधेपुरा रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन दौराम मधेपुरा है।
सड़क मार्ग
भारत के कई प्रमुख शहरों शहरों से मधेपुरा सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा सकते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग नम्बर-31 से होते हुए मधेपुरा पहुंचा जा सकता है।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जन्मभूमि-कर्मस्थली सिवान


भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद तथा कई अग्रणी स्वतंत्रता सेनानियों की जन्मभूमि एवं कर्मस्थली के लिए सिवान को जाना जाता है।  बिहार प्रान्त में सारन प्रमंडल के अंतर्गत सिवान है। यह बिहार के उत्तर पश्चिमी छोड़ पर उत्तर प्रदेश का सीमावर्ती जिला है। जिला मुख्यालय सिवान शहर दाहा नदी के किनारे बसा है। इसके उत्तर तथा पूर्व में क्रमश: बिहार का गोपालगंज तथा सारण जिला तथा दक्षिण एवं पश्चिम में क्रमश: उत्तर प्रदेश का देवरिया और बलिया जिला है। कुछ दिनों पहले तक सिवान जिला कुख्यात सैयद शहाबुद्दीन के जिले के नाम से जाना जाता था। लेकिन आज यहां का माहौल काफी शांतिपूर्ण है। यहां आकर आप अपने को गौरन्वावित महसूस करेंगे।
सिवान पांचवी सदी ईसापूर्व में सिवान की भूमि कोसल महाजनपद का अंग था। कोसल राज्य के उत्तर में नेपालए दक्षिण में सर्पिका (साईं) नदी, पुरब में गंडक नदी तथा पश्चिम में पांचाल प्रदेश था। इसके अंतर्गत आज के उत्तर प्रदेश का फैजाबाद, गोंडा, बस्ती, गोरखपुर तथा देवरिया जिला के अतिरिक्त बिहार का सारन क्षेत्र (सारन, सिवान एवं गोपालगंज) आता है। आठवीं सदी में यहाँ बनारस के शासकों का आधिपत्य था। 15 वीं सदी में सिकन्दर लोदी ने यहाँ अपना आधिपत्य स्थापित किया। बाबर ने अपने बिहार अभियान के समय सिसवां के नजदीक घाघरा नदी पार की थी। बाद में यह मुगल शासन का हिस्सा हो गया। अकबर के शासनकाल पर लिखे गए आईना-ए-अकबरी के विवरण अनुसार कर संग्रह के लिए बनाए गए 6 सरकारों में सारन वित्तीय क्षेत्र एक था और इसके अंतर्गत वर्तमान बिहार के हिस्से आते थे। 17वीं सदी में व्यापार के उद्देश्य से यहाँ डच आए लेकिन बक्सर युद्ध में विजय के बाद सन 1765 में अंग्रेजों को यहाँ का दिवानी अधिकार मिल गया। 1829 में जब पटना को प्रमंडल बनाया गया तब सारन और चंपारण को एक जिला बनाकर साथ रखा गया। 1908 में तिरहुत प्रमंडल बनने पर सारन को इसके साथ कर इसके अंतर्गत गोपालगंजए सिवान तथा सारन अनुमंडल बनाए गए। 1857 की क्रांति से लेकर आजादी मिलने तक सिवान के निर्भीक और जुझारु लोगों ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ी। 1920 में असहयोग आन्दोलन के समय सिवान के ब्रज किशोर प्रसाद ने पर्दा प्रथा के विरोध में आन्दोलन चलाया था। 1937 से 1938 के बीच हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने किसान आन्दोलन की नींव सिवान में रखी थी। स्वतंत्रता की लड़ाई में यहाँ के मजहरुल हक़, राजेन्द्र प्रसाद, महेन्द्र प्रसाद, फूलेना प्रसाद जैसे महान सेनानियों ने समूचे देश में बिहार का नाम ऊँचा किया है। स्वतंत्रता पश्चात 1981 में सारन को प्रमंडल का दर्जा मिला। जून 1970 में बिहार में त्रिवेदी एवार्ड लागू होने पर सिवान के क्षेत्रों में परिवर्तन किए गए। सन 1885 में घाघरा नदी के बहाव स्थिति के अनुसार लगभग 13000 एकड़ भूमि उत्तर प्रदेश को स्थानान्तरित कर दिया गया जबकि 6600 एकड़ जमीन सिवान को मिला।
पर्यटन स्थलदोन स्तूप (दरौली) दरौली प्रखंड के दोन गाँव में यह एक महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल है। दरौली नाम मुगल शासक शाहजहाँ के बेटे दारा शिकोह के नाम पर पड़ा है। ऐसी मान्यता है कि दोन में भगवान बुद्ध का अंतिम संस्कार यहाँ हुआ था। हिंदू लोग यह मानते हैं कि यहाँ किले का अवशेष महाभारत काल का है जिसे गुरु द्रोणाचार्य ने बनवाया था। उपलब्ध साक्ष्यों को देखने से इस मान्यता को बल नहीं मिलता। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वर्णन में इस स्थान पर एक पुराना स्तूप होने का जिक्र किया है। स्तूप के अवशेष स्थल पर तारा मंदिर बना है जिसमें नवीं सदी में बनी एक मूर्ति स्थापित है।
अमरपुर
 दरौली से 3 किलोमीटर पश्चिम में घाघरा नदी के तट पर स्थित इस गाँव में मुगल शाहजहाँ के शासनकाल (1626-1658) में यहाँ के नायब अमरसिंह द्वारा एक मस्जिद का निर्माण शुरु कराया गया जो अधूरा रहा। लाल पत्थरों से बनी अधूरी मस्जिद को यहाँ देखा जा सकता है।
मैरवा धाम

सिवान के मैरवा प्रखंड में हरि बाबा का स्थान के नाम से प्रचलित झरही नदी के किनारे इस स्थान पर कार्तिक और चैत्र महीने में मेला लगता है। यह ब्रह्म स्थान एक संत की समाधि पर स्थित है। इस स्थान पर डाक बंग्ला के सामने बने चनानरी डीह (ऊँची भूमि) पर एक अहिरनी औरत के आश्रम को पूजा जाता है।
मेंहदार
 सिसवां प्रखंड में स्थित इस गाँव के बावन बीघे में बने पोखर के किनारे शिव एवं विश्वकर्मा भगवान का मंदिर बना है। स्थानीय लोगों में इस पोखर को पवित्र माना जाता है। यहाँ शिवरात्रि एवं विश्वकर्मा पूजा (17 सितंबर) को भाड़ी भीड़ जुटती है।
लकड़ी दरगाह
मुस्लिम संत शाह अर्जन के दरगाह पर रब्बी-उस-सानी के 11 वें दिन होनेवाले उर्स पर भाड़ी मेला लगता है। इस दरगाह पर लकड़ी का बहुत अच्छी कासीगरी की गयी है। कहा जाता है कि इस स्थान की शांति के चलते शाह अर्जन बस गए थे और उन्होंने 40 दिनों तक यहाँ चिल्ला किया था।
हसनपुरा
 हुसैनीगंज प्रखंड के इस गाँव में अरब से आए चिश्ती सिलसिले के एक मुस्लिम संत मख्दूम सैय्यद हसन चिश्ती आकर बस गए थे। यहाँ उन्होंने खानकाह भी स्थापित किया था।
भिखाबांध
 महाराजगंज प्रखंड में इस जगह पर एक विशाल पेड़ के नीचे भैया-बहिनी का मंदिर बना है। कहा जाता है कि 14 वीं सदी में मुगल सेना से लड़ाई में दोनों भाई बहन मारे गए थे।
जिरादेई
 सिवान शहर से 13 किमी पश्चिम में देशरत्न डा राजेन्द्र प्रसाद का जन्म स्थान को देखकर आपक गौरन्वावित महसूस करेंगे। डा. राजेंद्र प्रसाद का जन्म बिहार के तत्कालीन सारण और आज के सिवान जिले के जिरादेई में तीन दिसंबर 1884 को हुआ। इनके पिता का नाम महादेव सहाय तथा माता का नाम कमलेश्वरी देवी था। इनके पिता जी पर्सियन थे और संस्कृत भाषा के विद्वान भी थे।
फरीदपुर
 बिहार रत्न मौलाना मजहरूल हक़ का जन्म स्थान है।
सोहगरा
 शिव भगवान का मंदिर है। जहा जाने के लिए गुठनी चौराहा से तेनुआ मोड़, और गाँव नैनिजोर होते हुए सोहगरा मंदिर जाया जाता है। यहाँ शिवरात्रि और सावन मे भाड़ी भीड़ जुटती है।

हड़सरयह दुरौधा स्टेशन से दो किलोमीटर अन्दर है। यहां काली मां का मंदीर है जो देवी थावे मंदिर में है। थावे जाते समय इनका यही अंतिम पडाव था। यहां कोई मंदिर नही है अब आस्था गहरी है।
पातार
 इस गांव के प्र्रसिद्ध राम जी बाबा का मन्दिर है। यहां के लोगों की मान्यता है कि किसी भी आदमी को सर्प काटता है तो यहाँ पर आने से सही हो जाता है। इसी गांव में श्री विश्वनाथ पाण्डेय जी के सुपुत्र प्रसिद्ध ज्योतिष आचार्य मुरारी पाण्डेय जी का जन्मस्थली हे।
नरहन
 जिला मुख्यालय से 30 किमी0 दक्षिण में अवस्थित है। यह एक हिन्दुओ क प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। कार्तिक पुर्निमा एवम मकर सक्रान्ति के दिन यहां मेले का आयोजन होता है जिसमे काफी मात्र्रा मे श्रद्धालु आते है और सरयु नदी के पवित्र जल मे स्नान करते है । यहा आश्विन पुर्निमा के दिन दुर्गा पुजा के बाद एक भब्य जुलुश का आयोजन होता है जिसे देखने दूर-दूर से लोग आते है। कुछ प्रसिद्ध स्थलो में श्री नाथ जी का महाराज मंदिर, मां भगवती मंदिर, राम जानकी मंदिर, मां काली मंदिर एवं ठाकुर जी मंदिर है जो इस गांव को चारो ओर से घेरे हुए है।

Wednesday 2 January 2013

सीता की शरणस्थली पश्चिमी चंपारण


ऐतिहासिक दृष्टिकोण से पश्चिमी चंपारण एवं पूर्वी चंपारण एक है। चंपारण का बाल्मिकीनगर देवी सीता की शरणस्थली होने से अति पवित्र है वहीं दूसरी ओर गाँधीजी का प्रथम सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास का अमूल्य पन्ना है। राजा जनक के समय यह तिरहुत प्रदेश का अंग था जो बाद में छठी सदी ईसापूर्व में वैशाली के साम्राज्य का हिस्सा बन गया। अजातशत्रु के द्वारा वैशाली को जीते जाने के बाद यह मौर्य वंशए कण्व वंशए शुंग वंशए कुषाण वंश तथा गुप्त वंश के अधीन रहा। सन 750 से 1155 के बीच पाल वंश का चंपारण पर शासन रहा। इसके बाद मिथिला सहित समूचा चंपारण प्रदेश सिमराँव के राजा नरसिंहदेव के अधीन हो गया। बाद में सन 1213 से 1227 ईस्वी के बीच बंगाल के गयासुद्दीन एवाज ने नरसिंह देव को हराकर मुस्लिम शासन स्थापित की। मुसलमानों के अधीन होने पर तथा उसके बाद भी यहाँ स्थानीय क्षत्रपों का सीधा शासन रहा।
मुगल काल के बाद के चंपारण का इतिहास बेतिया राज का उदय एवं अस्त से जुड़ा है। बादशाह शाहजहाँ के समय उज्जैन सिंह और गज सिंह ने बेतिया राज की नींव डाली। मुगलों के कमजोर होने पर बेतिया राज महत्वपूर्ण बन गया और शानो.शौकत के लिए अच्छी ख्याति अर्जित की। 1763 ईस्वी में यहाँ के राजा धुरुम सिंह के समय बेतिया राज अंग्रेजों के अधीन काम करने लगा। इसके अंतिम राजा हरेन्द्र किशोर सिंह के कोई पुत्र न होने से 1897 में इसका नियंत्रण न्यायिक संरक्षण में चलने लगा जो अबतक कायम है। हरेन्द्र किशोर सिंह की दूसरी रानी जानकी कुँवर के अनुरोध पर 1910 में बेतिया महल की मरम्मत करायी गयी थी। बेतिया राज की शान का प्रतीक यह महल आज यह शहर के मध्य में इसके गौरव का प्रतीक बनकर खड़ा है।
उत्तर प्रदेश और नेपाल की सीमा से लगा यह क्षेत्र भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान काफी सक्रिय रहा है। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय चंपारण के ही एक रैयत श्री राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर महात्मा गाँधी अप्रैल 1917 में मोतिहारी आए और नील की खेती से त्रस्त किसानों को उनका अधिकार दिलाया। अंग्रेजों के समय 1866 में चंपारण को स्वतंत्र इकाई बनाया था। प्रशासनिक सुविधा के लिए 1972 में इसका विभाजन कर पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण बना दिए गया।
पर्यटक क्या देखें
बाल्मिकीनगर राष्ट्रीय उद्यान एवं बाघ अभ्यारण्य
लगभग 880 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैला बिहार का एक मात्र राष्ट्रीय उद्यान नेपाल के राजकीय चितवन नेशनल पार्क से सटा है। बेतिया से 80 किलोमीटर दूर बाल्मिकीनगर के इस राष्ट्रीय उद्यान का भीतरी 335 वर्ग किलोमीटर हिस्से को 1990 में देश का 18 वाँ बाघ अभ्यारण्य बनाया गया। हिरण, चीतल, साँभर, तेंदुआ, नीलगाय, जंगली बिल्ली जैसे जंगली पशुओं के अलावे चितवन नेशनल पार्क से एकसिंगी गैडा और जंगली भैंसा भी उद्यान में दिखाई देते है।
बाल्मिकीनगर आश्रम और गंडक परियोजना
वाल्मिकीनगर राष्ट्रीय उद्यान के एक छोड पर महर्षि बाल्मिकी का वह आश्रम है जहाँ राम के त्यागे जाने के बाद देवी सीता ने आश्रय लिया था। सीता ने यहीं अपने श्लवश् और श्कुशश् दो पुत्रों को जन्म दिया था। महर्षि वाल्मिकी ने हिंदू महाकाव्य रामायण की रचना भी यहीं की थी। आश्रम के मनोरम परिवेश के पास ही गंडक नदी पर बनी बहुद्देशीय परियोजना है जहाँ 15 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है और यहाँ से निकाली गयी नहरें चंपारण के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से में सिंचाई की जाती है। गंडक बैराज के आसपास का शांत परिवेश चित्ताकर्षक है। बेतिया राज के द्वारा बनवाया गया शिव-पार्वती मंदिर भी दर्शनीय है।
त्रिवेणी संगम तथा बावनगढी
एक ओर नेपाल का त्रिवेणी गाँव तथा दूसरी ओर चंपारण का भैंसालोटन गाँव के बीच नेपाल की सीमा पर बाल्मिकीनगर से 5 किलोमीटर की दूरी पर त्रिवेणी संगम है। यहाँ गंडक के साथ पंचनद तथा सोनहा नदी का मिलन होता है। श्रीमदभागवत पुराण के अनुसार विष्णु के प्रिय भक्त गज और ग्राह की लड़ाई इसी स्थल से शुरु हुई थी जिसका अंत हाजीपुर के निकट कोनहारा घाट पर हुआ था। हरिहरक्षेत्र की तरह प्रत्येक वर्ष माघ संक्रांति को यहाँ मेला लगता है। त्रिवेणी से 8 किलोमीटर दूर बगहा-2 प्रखंड के दरवाबारी गाँव के पास बावनगढी किले का खंडहर मौजूद है। पास ही तिरेपन बाजार है। इस प्राचीन किले के पुरातात्विक महत्व के बारे में तथ्यपूर्ण जानकारी का अभाव है।
प्राकृतिक सुंदरता के लिए चर्चित भिखना ठोढी
जिले के उत्तर में गौनहा प्रखंड स्थित भिखना ठोढी नरकटियागंज-भिखना ठोढी रेलखंड का अंतिम स्टेशन है। नेपाल की सीमा पर बसा यह छोटी सी जगह अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए चर्चित है। जाड़े के दिनों में यहाँ से हिमालय की हिमाच्छादित धवल चोटियाँ एवं अन्नपूर्णा श्रेणी साफ दिखाई देता है। यहाँ के शांत एवं मनोहारी परिवेश का आनंद इंगलैंड के राजा जॉर्ज पंचम ने भी लिया था। ब्रिटिस कालीन पुराने बंगले के अलावे यहाँ ठहरने की कई जगहें है।
भितहरवा आश्रम एवं रामपुरवा का अशोक स्तंभ
गौनहा प्रखंड के भितहरवा गाँव के एक छोटे से घर में ठहरकर महात्मा गाँधी ने चंपारण सत्याग्रह की शुरुआत की थी। उस घर को आज भितहरवा आश्रम कहा जाता है। स्वतंत्रता के मूल्यों का आदर करने वालों के लिए यह जगह तीर्थ समान है। आश्रम से कुछ ही दूरी पर रामपुरवा में सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए दो स्तंभ है जो शीर्षरहित है। इन स्तंभों के ऊपर बने सिंह वाले शीर्ष को कोलकाता संग्रहालय में तथा वृषभ (सांढ) शीर्ष को दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा गया है।
नन्दनगढ, चानकीगढ एवं लौरिया का अशोक स्तंभ
लौरिया प्रखंड के नन्दनग़ढ तथा नरकटियागंज प्रखंड के चानकी गढ में नंद वंश तथा चाणक्य के द्वारा बनवाए गए महलों के अवशेष हैं जो अब टीलेनुमा दिखाई देते हैं। नन्दनगढ के टीले को भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष पर बना स्तूप भी कहा जाता है। नन्दनगढ से एक किलोमीटर दूर लौरिया में 2300 वर्ष पुराना सिंह के शीर्ष वाला अशोक स्तंभ है। 35 फीट ऊँचे इस स्तंभ का आधार 35 इंच एवं शीर्ष 22 इंच है। इस विशाल स्तंभ की कलाकृति एवं बेहतरीन पॉलिस मौर्य काल के मूर्तिकारों की शानदार कलाकारी का नमूना है।
अन्य महत्वपूर्ण स्थल
सुमेश्वर का किला
 रामनगर प्रखंड में समुद्र तल से 2ए884 फीट की ऊँचाई पर सोमेश्वर की पहाड़ी की खड़ी ढलान पर बना सुमेश्वर का किला अब खंडहर बन चुका है। नेपाल की सीमा पर बना यह किला अब खंडहर मात्र है लेकिन अंतेपुरवासियों की पानी की जरुरतों के लिए पत्थर काट कर बनाया गया कुंड देखा जा सकता है। किले के शीर्ष से आसपास की उपत्यकाएं एवं नेपाल स्थित घाटी र्औ पर्वत श्रेणियों का विहंगम दृश्य दृष्टिगोचर है। हिमालय के प्रसिद्ध धौलागिरि, गोसाईंनाथ एवं गौरीशंकर के धवल शिखरों को साफ देखा जा सकता है।
वृंदावनरू बेतिया से 10 किलोमीटर दूर इस स्थान पर 1937 में ऑल इंडिया गाँधी सेवा संघ का वार्षिक सम्मेलन हुआ था। इसमें गाँधीजी सहित राजेन्द्र प्रसाद और जे बी कृपलानी ने हिस्सा लिया था। अपने शिक्षा संबंधी विचारों पर गाँधीजी द्वारा उस समय स्थापित एक बेसिक स्कूल अब भी चल रहा है।
सरैयां मान (पक्षी विहार): बेतिया से 6 किलोमीटर दूर सरैयां के शांत परिवेश में प्राकृतिक झील बना है। यह पक्षियों की कई प्रजातियों का प्रवास स्थल भी है। झील के किनारे लगे जामुन के पेड़ों से गिरनेवाले फल के कारण इसका पानी पाचक माना जाता है। यह स्थान लोगों के लिए पिकनिक स्थल एवं पक्षी-विहार है।
आवागमनसड़क मार्ग:
बेतिया,बगहा, नरकटियागंज, रक्सौल आदि से पटनाए मोतिहारीए मुजफ्फरपुर आदि के लिए बसों की अच्छी सुविधा है। राष्ट्रीय राजमार्ग 28ठ प्रमुख सड़क है जो छपवा से शुरू होकर बेतिया होते हुए कुशीनगर तक जाती है। राजकीय राजमार्ग 54 तथा 64 की कुल लंबाई 154 किलोमीटर है। कुल क्षेत्रफल के हिसाब से जिले में अच्छी सड़कों का अभाव है। राज्य की राजधानी पटना से बेतिया की दूरी 210 किमी है।
रेल मार्ग:
पश्चिम चंपारण में रेलमार्ग की शुरुआत सन 1888 में हुई थी जब बेतिया को मुजफ्फरपुर से जोड़ा गया। बाद में इसे नेपाल सीमा पर भिखना ठोढी तक बढाया गया। एक दूसरा रेलमार्ग नरकटियागंज से रक्सौल होते हुए बैरगनिया तक जाती है। पूर्व मध्य रेलवे के अंतर्गत आनेवाले इस रेलखंड की जिले में कुल लंबाई 220 किलोमीटर है। गंडक नदी पर छितौनी में पुल बन जाने के बाद यहाँ का मुख्य रेलमार्ग गोरखपुर होते हुए राजधानी दिल्ली सहित देश के महत्वपूर्ण नगरों से जुड़ गया। जिले का प्रमुख रेलवे स्टेशन बेतियाए रक्सौल तथा नरकटियागंज है।
हवाई मार्ग:
निकटतम हवाई अडडा 210 किलोमीटर दूर पटना में है जहाँ से दिल्ली, कोलकाता, राँची, मुम्बई आदि के लिए कई विमान कंपनियाँ अपनी सेवा देती हैं। जिले की सीमा पर नेपाल के बीरगंज स्थित हवाई अडडा से काठमांडू के लिए नियमित विमान सेवा उपलब्ध है।

चम्पा के पेड़ों से आच्छादित जंगल चंपारण



चंपारण का नाम चंपा-अरण्य से बना है जिसका अर्थ होता है चम्पा के पेड़ों से आच्छादित जंगल। पूर्वी चम्पारण के उत्तर में एक ओर जहाँ नेपाल तथा दक्षिण में मुजफ्फरपुर स्थित है, वहीं दूसरी ओर इसके पूर्व में शिवहर और सीतामढ़ी तथा पश्चिम में पश्चिमी चम्पारण जिला है। महाकाव्य काल से लेकर आज तक चंपारण का इतिहास गौरवपूर्ण एवं महत्वपूर्ण रहा है। पुराण में वर्णित है कि यहाँ के राजा उत्तानपाद के पुत्र भक्त ध्रुव ने यहाँ के तपोवन नामक स्थान पर ज्ञान प्राप्ति के लिए घोर तपस्या की थी। एक ओर चंपारण की भूमि देवी सीता की शरणस्थली होने से पवित्र है वहीं दूसरी ओर आधुनिक भारत में गाँधीजी का चंपारण सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास का अमूल्य पन्ना है। राजा जनक के समय यह तिरहुत प्रदेश का अंग था। लोगों का ऐसा विश्वास है कि जानकीगढ, जिसे चानकीगढ भी कहा जाता हैए राजा जनक के विदेह प्रदेश की राजधानी थी। जो बाद में छठी सदी ईसापूर्व में वैशाली के साम्राज्य का हिस्सा बन गया। भगवान बुद्ध ने यहाँ अपना उपदेश दिया था जिसकी याद में तीसरी सदी ईसापूर्व में प्रियदर्शी अशोक ने स्तंभ लगवाए और स्तूप का निर्माण कराया। गुप्त वंश तथा पाल वंश के पतन के बाद मिथिला सहित समूचा चंपारण प्रदेश कर्नाट वंश के अधीन हो गया। मुसलमानों के अधीन होने तक तथा उसके बाद भी यहाँ स्थानीय क्षत्रपों का सीधा शासन रहा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय चंपारण के ही एक रैयत एवं स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर महात्मा गाँधी अप्रैल 1917 में मोतिहारी आए और नील की फसल के लागू तीनकठिया खेती के विरोध मेंसत्याग्रह का पहला सफल प्रयोग किया। आजा़दी की लड़ाई में यह नए चरण की शुरूआत थी। बाद में भी बापू कई बार यहाँ आए। अंग्रेजों ने चंपारण को सन 1866 में ही स्वतंत्र इकाई बनाया था लेकिन 1971 में इसका विभाजन कर पूर्वी तथा पश्चिमी चंपारण बना दिया गया। तिरहुत का अंग होने पर भी अलग भाषा तथा भौगोलिक विशिष्टता के चलते चंपारण की संस्कृति बज्जिका भाषी क्षेत्रों से थोड़ा भिन्न है। जिले के सभी हिस्सों में भोजपुरी बोली जाती है लेकिन हिंदी और उर्दू शिक्षा का माध्यम है। शादी-विवाह या अन्य मांगलिक अवसरों पर भोजपुरी संगीत कार्यक्रम का अभिन्न हिस्सा होता है। कभी नील की खेती के लिए जाने जानावाला जिला अब अच्छी किस्म के चावल और गुड़ के लिए प्रसिद्ध है। अपरिचितों का स्वागत भी गुड़ और पानी से किया जाता है।

पर्यटन स्थल

केसरिया का बौद्ध स्तूप

मोतिहारी से 35 किलोमीटर दूर साहेबगंज-चकिया मार्ग पर लाल छपरा चौक के पास अवस्थित है प्राचीन ऐतिहासिक स्थल केसरिया। यहाँ एक वृहद् बौद्धकालीन स्तूप है जिसे केसरिया स्तूप के नाम से जाना जाता है। 1998 में भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा उत्खनन के उपरांत इस जगह का पर्यटन और ऐतिहासिक रूप से महत्व बढ़ गया है। पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार यह बौद्ध स्तूप दुनिया की सबसे ऊँचा स्तूप है। यह स्थान राजधानी पटना से 120 किलोमीटर और वैशाली से 30 मील दूर है। मूल रुप में 150 फीट ऊँचे इस स्तूप की ऊँचाई सन 1934 में आए भयानक भूकंप से पहले 123 फीट थी। भारतीय पुरातत्वेत्ताओं के अनुसार जावा का बोराबुदूर स्तूप वर्तमान में जहाँ 103 फीट ऊँचा है वहीं केसरिया स्थित इस स्तूप की ऊंचाई 104 फीट है। विश्व धरोहर में शामिल सांची का स्तूप की ऊंचाई 77.50 फीट ही है। इसके ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए बिहार सरकार केंद्र की मदद से इसे एक ऐतिहासिक पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने की योजना बना रही है। बिहार पर्यटन में केसरिया का महत्व बढ़ता ही जा रहा है।
लौरिया नन्दनगढअरेराज अनुमंडल के लौरिया गांव में स्थित अशोक स्तंभ की ऊंचाई 36.5 फीट है। इस स्तंभ (बलुआ पत्थर से निर्मित) का निर्माण 249 ईसा पूर्व सम्राट अशोक के द्वारा किया गया था। इसपर प्रियदर्शी अशोक लिखा हुआ है। इसके आधार का व्यास 41.8 इंच तथा शिखर का व्यास 37.6 इंच है। इस स्तंभ को स्तंभ धर्मलेख के नाम से भी जाना जाता है। सम्राट अशोक ने इसमें अपने 6 आदेशों के संबंध में लिखा है। स्तंभ का वजन (जमीन से ऊपर का हिस्सा) 34 टन के आसपास है। अनुमान के अनुसार इस स्तंभ का कुल वजन 40 टन है। कहा जाता है कि इस स्तंभ के ऊपर जानवर की मूर्ति थी जिसको कोलकाता संग्रहालय भेज दिया गया है। इस स्तंभ पर लिखा हुआ आदेश 18 लाइनों में है।
गाँधी स्मारक (मोतिहारी)
चम्पारण की शान का प्रतीक गांधी मेमोरियल स्तंभ का शिलान्यास 10 जून 1972 को तत्कालीन राज्यपाल डीके बरूच के द्वारा किया गया था। 18 अप्रैल 1978 को वरिष्ठ गांधीवादी विद्याकर कवि ने इस स्तंभ को राष्ट्र को समर्पित किया। इस स्तंभ का निर्माण महात्मा गांधी के चंपारण सत्?याग्रह की याद में शांति निकेतन के मशहूर कलाकार नन्द लाल बोस के द्वारा किया गया। चुनार पत्थर से निर्मित इस स्तंभ की लंबाई 48 फीट है। स्मारक का निर्माण ठीक उसी जगह किया गया है जहां गाँधीजी को 18 अप्रैल 1917 में धारा 144 का उल्लंघन करने के जुर्म में अनुमंडलाधिकारी की अदालत में पेश किया गया था।
जॉर्ज ऑरवेल स्मारक
अंग्रेजी साहित्य के महान लेखक जॉर्ज ऑरवेल का जन्म 25 जून 1903 को मोतिहारी में हुआ था। उस समय उनके पिता रिचर्ड वेल्मेज्ली ब्लेयर चंपारण के अफीम विभाग में सिविल अधिकारी थे। जन्म के कुछ दिनों के बाद ऑरवेल अपनी माँ और बहन के साथ इंगलैंड चले गए जहाँ उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही लेखन आरंभ किया। उनकी लिखी कुछ पुस्तकें अंग्रेजी साहित्य की महान कृति है। वर्ष 2004 में रोटरी क्लब मोतिहारी तथा जिला प्रशासन के प्रयास से उनके जन्म स्थल की दशा सुधार कर वहाँ एक फलक लगाया गया जिसपर उनका संक्षिप्त जीवन चरित लिखा है।
रामगढ़वा उच्च विद्यालयतारकेश्वर नाथ तिवारी द्वारा बनवाया गया हाई स्कूल पूर्वी चम्पारण के रामगढ़वा में है। इस स्कूल ने ग्रामीण इलाके में शिक्षा का सूत्रपात किया। कई आएएस, आईपीएस, डॉक्टर, अभियंता बने यहां के छात्र आज भी यहां आते हैं और तारकेश्वर नाथ तिवारी को याद करते हैं।
अन्य स्थल
सोमेश्वर महादेव मंदिर

मोतिहारी शहर से 28 किमीण् दूर दक्षिण.पश्चिम में स्थित अरेराज में भगवान शिव का प्रसिद्व मंदिर है जो सोमेश्वर शिव मंदिर कहलाता है। श्रावणी मेला (जुलाई-अगस्त) के समय केवल चंपारण से ही नहीं वरन नेपाल से भी हजारों की संख्या में भक्तगण भगवान शिव का जलाभिषेक करने यहाँ आते है।
सीताकुंड
 मोतिहारी से 16 किमी दूर पीपरा रेलवे स्टेशन के पास यह एक पुराने किले के परिसर में सीताकुंड स्थित है। माना जाता है कि भगवान राम की पत्नी सीता ने त्रेतायुग में इस कुंड में स्नान किया था। इसके किनारे भगवान सूर्य, देवी दुर्गा, हनुमान सहित कई अन्य मंदिर भी बने हुए है। रामनवमी के दिन यहाँ एक विशाल मेला लगता है। हजारों की संख्या में इस दिन लोग भगवान राम और सीता की पूजा अर्चना करने यहां आते है।
चंडीस्थान (गोविन्दगंज)
हुसैनी जलविहार

गंडक नदी के पश्चिमी तट पर बसा गोपालगंज


गोपालगंज भारत के बिहार राज्य में सारन प्रमंडल अंतर्गत एक शहर एवं जिला है। गंडक नदी के पश्चिमी तट पर बसा यह भोजपुरी भाषी जिला ईंख उत्पादन के लिए जाना जाता है। मध्यकाल में चेरों राजाओं तथा अंग्रेजों के समय यह हथुवा राज का केंद्र रहा है। थावे स्थित दुर्गा मंदिर एवं दिघवा दुबौली प्रमुख दर्शनीय स्थल है।
ऐतिहासिक स्थिति
वैदिक स्रोतों के मुताबिक आर्यों की विदेह शाखा ने अग्नि के संरक्षण में सरस्वती तट से पूरब में सदानीरा (गंडक) की ओर प्रस्थान किया। अग्नि ने उन्हे गंडक के पास अपने राज्य की स्थापना के लिए कहा जो विदेह कहलाया। आर्यों की एक शाखा सारन में बस गया। महाजनपद काल में यह प्रदेश कोशल गणराज्य का अंग बना। इसके पश्चात यह शक्तिशाली मगध के मौर्य, कण्व और गुप्त शासकों के महान साम्राज्य का हिस्सा रहा। सारन में मिले साक्ष्य यह साबित करते हैं कि लगभग 3000 ईसा पूर्व में भी इस हिस्से में आबादी कायम थी। संभव है कि आर्यों के यहाँ आनेपर सत्ता संघर्ष हुआ हो। 13 वीं सदी में मुसलमान शासक ने इस क्षेत्र पर अपना कब्जा किया लेकिन इसके पूर्व चेरों साम्राज्य के राजा काफी समय यहाँ अपनी सत्ता तक कायम रखने में सक्षम रहे। शोरे के व्यापार के चलते सबसे पहले डचों का यहाँ आगमन हुआ लेकिन बक्सर युद्ध के बाद 1765 में अंग्रेजों ने यहाँ अपना आधिपत्य कायम कर लिया। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान गोपालगंज की भूमि आजादी की माँग के नारों के बीच उथल-पुथल भरा रहा। 2 अक्टुबर 1972 को यह सारन से अलग स्वतंत्र जिला बना।
देखने लायक जगह
थावे :
 गोपालगंज में थावे स्थित हथुवा राजा द्वारा बनवाया गया दुर्गा मन्दिर सबसे महत्वपूर्ण स्थल है। जिला मुख्यालय से इसकी दूरी मात्र 5 किमी है। चैत्र महीने में यहाँ विशाल मेला लगता है। मंदिर के पास ही देखने योग्य एक विशाल पेड़ है जिसका वानस्पतिक वर्गीकरण नहीं किया जा सका है। मन्दिर की मूर्ति एवं विशाल पेड़ के बारे में कई कहानियाँ प्रचलित है। मां थावेवाली स्थल : गोपालगंज का गौरव
बिहार प्रान्त के गोपालगंज शहर से मात्र 6 किलो मीटर की दुरी पर सिवान जानेवाले राजमार्ग पर थावे नामक एक जगह है, जहां 'मां थावेवालीÓ का अति प्राचीन मंदिर है । मां थावेवाली को सिंहासिनी भवानी, थावे भवानी और रहषु भवानी के नाम से भी भक्तजन पुकारते हैं। कामरूप (असम) जहां कामख्यादेवी का बड़ा ही प्राचीन और भव्य मंदिर हैए मां थावेवाली वहीं से थावे (गोपालगंज) आयीं, इसीकारण मां को 'कामरूप-कामख्या देवीÓ के नाम से भी जाना जाता है। थावे में मां कामाख्या के एक बहुत सच्चे भक्त रहषु स्वामी थे किन्तु हथुआ (आधुनिक समय में गोपालगंज जिले का एक अनुमंडल, किन्तु मध्यकाल का एक विख्यात राज्य। तत्कालीन समय में थावे उसी राज्य के अन्तर्गत आता था) के तत्कालीन राजा मनन सिंह की नजर में रहषु स्वामी एक ढोंगी भगत मात्र ही थे। अचानक एक दिन राजा मनन सिंह (जो कि अपनी राजसी मद में चूर रहता था) ने अपने सैनिकों को रहषु स्वामी को पकड़ लाने का आदेश दिया एवं उनके आने पर राजा ने कहा कि यदि वाकई मां का सच्च भक्त है तो उन्हे मेरे सामने बुला या फिर मृत्युदण्ड के लिए तैयार रह। रहषु स्वामी के द्वारा बार-बार समझाने पर पर भी राजा मनन सिंह नहीं माना एवं कहने लगा कि यदि तुने मां को नहीं बुलाया तो तेरे साथ थावे की पूरी जनता को भी मृत्युदण्ड दिया जाएगा। रहषु जी के पास मां जगद्धात्री को बुलाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा । रहषु स्वामी जी मां को सुमिरने लगे तब मां दुर्गा कामाख्या स्थान से चलकर कोलकाता (काली के रूप में दक्षिणेश्वर स्थान में प्रतिष्ठित), पटना (यहां मां पटनदेवी के नाम से जानी गईं), आमी (छपरा जिला में मां दुर्गा का एक प्रसिद्ध स्थान) होते हुए थावे पहूंची और रहषू स्वामी के मस्तक को विभाजित करते हुए साक्षात दर्शन दीं। मां ने जिस जगह पर दर्शन दिया वहां एक भव्य मन्दिर है तथा कुछ दूरी पर रहषु भगत जी का मन्दिर भी स्थापित है। जो भक्तजन मां के दर्शनों के लिए आते हैं वो रहषु स्वामी के मंदिर भी जरुर जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि बिना रहषुजी का दर्शन किये आपकी यात्रा पूर्ण नहीं मानी जाती। इस मंदिर के पास ही वर्तमान में भी राजा मनन सिंह के महल का खंडहर दिखाई देता है। मां के बारे में लोग कहते हैं कि मां थावेवाली बहुत दयालु और कृपालु हैं और अपने शरण में आये हुए सभी भक्तजनों का कल्याण करती हैं। हर सुख-दु:ख में लोग इनके शरण में आते हैं और मां किसी को भी निराश नहीं करती हैं। किसी के घर शादी-विवाह हो या दु:ख.बीमारी या फिर किसी ने गाड़ी-घोड़ा खरीदी तो सर्वप्रथम याद मां को ही किया जाता है। देश-विदेश में रहने वाले लोग भी साल-दो साल में घर आने पर सबसे पहले मां के दर्शनों को ही जाते हैं। मां थावेवाली के मंदिर की पूरे पूर्वांचल तथा नेपाल के मधेशी प्रदेश में वैसी ही ख्याति है, जैसी मां वैष्णोदेवी की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर। वैसे तो यहां भक्तजनों का आना पूरे वर्षभर चलता रहता है किन्तु शारदीय नवरात्रि एवं चैत्रमास की नवरात्रि में यहां काफ़ी अधिक संख्या में श्रद्धालु आते हैं। एवं सावन के महीने में बाबाधाम (देवघर में स्थित) जाने वाले कांवरियों की भी यहां अच्छी संख्या रहती है।
दिघवा दुबौली
 गोपालगंज से 40 किलोमीटर दक्षिण-पूरब तथा छपरा से मशरख जानेवाली रेल लाईन पर 56 किलोमीटर उत्तर में दिघवा-दुबौली एक गाँव है जहाँ पिरामिड के आकार का दो टीला है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि ये टीले यहाँ शासन कर रहे चेरों राजा द्वारा बनवाए गए थे।
हुसेपुर
 गोपालगंज से 24 किलोमीटर उत्तर-पचिम में झरनी नदी के किनारे हथवा महाराजा का बनवाया किला अब खंडहर की अवस्था में है। यह गाँव पहले हथुवा नरेश की गतिविधियों का केंद्र था। किले के चारों तरफ  बने खड्ड अब भर चुके हैं। किले के सामने बने टीला हथुवा राजा की पत्नी द्वारा सती होने का गवाह है।
लकड़ी दरगाह
 पटना के मुस्लिम संत शाह अर्जन के दरगाह पर लकड़ी की बहुत अच्छी कासीगरी की गयी है। रब्बी-उस-सानी के 11 वें दिन होनेवाले उर्स पर यहाँ भाड़ी मेला लगता है। कहा जाता है कि इस स्थान की शांति के चलते शाह अर्जन बस गए थे और उन्होंने 40 दिनों तक यहाँ चिल्ला किया था।
भोरे
 भोरे गोपाल गंज जिला का एक प्रखण्ड है। भोरे से 2 किलोमीटर दक्षिण में शिवाला और रामगढ़वा डीह स्थित है। शिवाला में शिव का मंदिर व पोखरा है। रामगढ़वा डीह के बारे में यह मान्य़ता है कि यहॉं महाभारत काल के राजा भुरिश्वा की राजधानी थी। इस स्थान पर आज भी महलों के खण्डहरों के भग्नावशेष मिलते हैं तथा प्राचीन वस्तुएँ खुदाई के दौरान निकलती हैं। महाराज भुरिश्वा महाभारत के युद्ध में कौरवों के चौदहवें सेनापति थे। महाराज भुरिश्वा के नाम पर ही इस जगह का नाम भोरे पड़ गया ।
कैसे पहुंचे
सड़क मार्ग
गोपालगंज जिले से वर्तमान में तीन राष्ट्रीय राजमार्ग तथा दो राजकीय राजमार्ग गुजरती हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 85 छपरा से सिवान होते हुए गोपालगंज जाती है। लखनऊ से शुरू होनेवाली राष्ट्रीय राजमार्ग 28 जिले से गुजरते हुए मुजफ्फरपुर और बरौनी जाती है। राजकीय राजमार्ग संख्या 45ए 47ए 53 तथा 90 की कुल लंबाई 52 किलोमीटर है।
रेल मार्ग
दिल्ली-गुवाहाटी रेलमार्ग से हटकर छपरा से कप्तानगंज के लिए जानेवाली रेललाईन पर गोपालगंज एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। यह पूर्व मध्य रेलवे के सोनपुर मंडल में पड़ता है। जिले में थावे एक महत्वपूर्ण रेल जंक्शन है। थावे से सिवान के बीच एक मीटर गेज लाईन मौजूद है जो गोरखपुर जाती है। हथुआ से फुल्वरिआ तक एक नयि रैल लिने कि शुरुआत हुइ है। यन्हा से सिवान्ए छापराए भत्तनि तथा वारानाशि तक कि रैल्वय कि सेवा है।यवायु मार्गरू गोपालगंज का नजदीकी हवाई अड्डा सबेया (हथुआ) में है लेकिन यहाँ से विमान सेवाएँ उपलब्ध नहीं है। राज्य की राजधानी पटना में जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई क्षेत्र नागरिक हवाई अड्डा है जहाँ से दिल्ली, कोलकाता, राँची आदि शहरों के लिए इंडियन, स्पाइस जेट, किंगफिसर, जेटलाइट, इंडिगो आदि विमान सेवाएँ उपलब्ध हैं। गोपालगंज से छपरा पहुँचकर राष्ट्रीय राजमार्ग 19 द्वारा 215 किलोमीटर दूर पटना हवाई अड्डा जाया जाता है।



Tuesday 1 January 2013

सात नदियों से घिरा खगडिय़ा


केले और मिरची की खेती के लिए खगडिय़ा प्रसिद्ध है। गंगा, कोसी तथा गंडक यहाँ की मुख्य नदियाँ हैं। यह बिहार के महत्वपूर्ण जिलों में से एक है। कात्यायनी, श्यामलाल नेशनल हाई स्कूल और अजगैबिनाथ महादेव यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थल है। इसका जिला मुख्यालय खगाडिय़ा शहर है। यह जिला सात नदियों गंगा, कमला बालन, कोशी, बुद्धि गंधक, करहा, काली कोशी और बागमती से घिरा हुआ है। इसके अलावा, यह जिला सहरसा जिले के उत्तरए मुंगेर और बेगुसराय जिले के दक्षिण, भागलपुर और मधेपुरा जिले के पूर्व तथा बेगुसराय और समस्तीपुर जिले के पश्चिम से घिरा हुआ है। इस जगह को फराकिया के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि पांच शताब्दी पूर्व मुगल शासक के राजा अकबर ने अपने मंत्री तोडरमल को यह निर्देश दिया कि वह सम्पूर्ण साम्राज्य का एक मानचित्र तैयार करें। लेकिन मंत्री इस क्षेत्र का मानचित्र तैयार करने में सफल नहीं हो सका क्योंकि यह जगह कठिन मैदानों, नदियों और सघन जंगलों से घिरी हुई थी।  इस जगह को फराकिया नाम दिया गया था।
प्रमुख आकर्षण
मां कात्यायनी का मंदिर


 मुख्यालय से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर कात्यायनी स्थान है। इस जगह पर मां कात्यायनी का मंदिर है। इसके साथ ही भगवान राम, लक्ष्मण और मां जानकी का मंदिर भी है। प्रत्येक सोमवार और शुक्रवार काफी संख्या में भक्त मंदिर में पूजा के लिए आते हैं। माना जाता है कि इस क्षेत्र में मां कात्यायनी की पूजा दो रूपों में होती है। पौराणिक कथा के अनुसार ऋषि कात्यायन ने कौशिक नदी, जिसे वर्तमान में कोशी के नाम से जाना जाता हैए तट पर तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर मां दुर्गा ने ऋषि की कन्या के रूप में जन्म लेना स्वीकार लिया। इसके बाद से उन्हें कत्यायनी के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्तए ऐसा कहा जाता है कि लगभग 300 वर्ष पूर्व यह जगह सघन जंगलों से घिरी हुई थी। एक बार भक्त श्रीपत महाराज ने मां कत्यायनी को स्वप्न में देखा और उनके दिशानिर्देश से इस जगह पर मंदिर का निर्माण करवाया था।
श्यामलाल नेशनल हाई स्कूलइस हाई स्कूल की स्थापना 1910 ई. में हुई थी। स्कूल की स्थापना के लिए श्री श्यामलाल ने पर्याप्त भूमि दान की थी। इस स्कूल के विद्यार्थियों और शिक्षकों ने स्वतंत्रता आंदोलन में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। स्वतंत्रता आंदोलन के समय यह स्थान क्रांतिकारियों के मिलने का प्रमुख स्थल रहा था।
अजगैबिनाथ महादेव
यह जगह भागलपुर जिले के सुल्तानगंज में स्थित है। यह स्थान खगडिय़ा जिले अगुनिघाट के बहुत ही समीप है। यहां स्थित भगवान शिव का मंदिर ऊंचे पर्वत पर है। काफी संख्या में भक्त मंदिर में दर्शनों के लिए आते हैं। इस मंदिर की विशेषता है कि यह मंदिर गंगा नदी के तट पर है। जिस कारण भक्त गंगा नदी में स्नान करने के पश्चात् ही मंदिर में भगवान शिव के दर्शनों के लिए जाते हैं।
आवागमनवायु मार्ग
यहां का सबसे निकटतम हवाई अड्डा पटना स्थित जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है।
रेल मार्ग
खगडिय़ा रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है।
सड़क मार्ग
सड़क मार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से खगडिय़ा आसानी से पहुंचा जा सकता है। राष्ट्रीय राजमार्ग 31 से खगडिय़ा पहुंच सकते हैं।

प्रकृति की गोद में बसा नवादा


नवादा दक्षिण बिहार का एक खूबसूरत एवं ऐतिहासिक जिला है। प्रकृति की गोद में बसा नवादा जिला को कई प्रमुख पर्यटन स्थलों के लिए जाना जाता है। ककोलत जलप्रपात, प्रजातंत्र द्वार, नारद संग्रहालयए सेखोदेवरा और गुनियाजी तीर्थ आदि यहां के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से है। नवादा के उत्तर में नालंदा, दक्षिण में झारखंड का कोडरमा जिला, पूर्व में शेखपुरा एवं जमुई तथा पश्चिम में गया जिला है। मगही यहाँ की बोली और हिन्दी तथा उर्दू मुख्य भाषाएँ हैं।
नवादा को ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। प्राचीन समय में यह शक्तिशाली मगध साम्राज्य का अंग रहा है। इस जगह पर वृहद्रथए मौर्य, गुप्त एवं कण्व शासकों ने लम्बे समय तक शासन किया है। मगध के शक्तिशाली बनने के पूर्व यह क्षेत्र महाभारत कालीन राजा जरासंध के शासन प्रदेश का हिस्सा था। तपोबन को जरासंध की जन्मभूमि माना जाता है। ऐसी मान्यता भी है कि भीम ने पकडड़ीहा में जरासंध को मल्लयुद्ध में हराया था। मगध के पतन एवं शासन का क्षेत्रीयकरन हो जाने के बाद भी वारसलीगंज से 5 किमी उत्तर.पश्चिम स्थित कुर्किहार, नवादा में पाल वंश का महत्वपूर्ण केंद्र बना रहा। बोधगया एवं पारसनाथ से निकटता के चलते यह क्षेत्र बौद्ध भिक्षुओं एवं जैन मुनियों का तपस्या स्थल रहा है। वारसलीगंज से 10 किमी दूर दरियापुर पार्वती में कपोतक बौद्ध.विहार के अवशेष मिले हैं। अपसर गाँव में राजा आदित्यसेन ने महत्वपूर्ण इमारतें एवं अवलोकितेश्वर की मूर्ति स्थापित करवाई थी। सीतामढी, बराट, नारदीगंज जैसे जगह आदिकाल से हिंदू आस्था के केंद्र रहे हैं।
1857 में अंग्रेजो से लड़ी गयी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय यहाँ के वीर बांकुड़ों ने नवादा को अंग्रेजी शासन से मुक्त करा लिया था। सन 1850 के आसपास अंग्रेजों द्वारा बसाए जा रहे नए उपनिवेश में गिरमिटिया मजदूरों की एक बड़ी खेप गुएनाए फिजी एवं रियूनियन आईलैंड में बस गए जहाँ उन्होंने एक नए भारत का निर्माण किया।
स्वतंत्रता पश्चात भारत के पहले राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद ने शेखोदेवरा गाँव में सर्वोदय आश्रम की स्थापना की थी। इस आश्रम में जय प्रकाश नारायण ने भी अपना महत्वपूर्ण समय गुजारा। नवादा के पद्म भूषण प्रसाद एवं पंडित सियाराम तिवारी ध्रुपद एवं ठुमरी शैली के श्रेष्ठ गायकों में शुमार हैं। गौरवशाली इतिहास के विविध रंगों में रंगा नवादा जिला पिछले वर्षों में राज्य सरकार की उपेक्षा का शिकार रहा है।

दर्शनीय स्थल
ककोलत जलप्रपात
  प्रकृति में गोद में बसा ककोलत जलप्रपात प्राकृतिक उपहार के अतिरिक्त पुरातत्विक एवं धार्मिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। यह झरना समुद्र तल से लगभग 150 से 160 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। माना जाता है कि इस जगह पर पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान एक राजा को सर्पयोनि से मुक्त कराया था। प्रत्येक वर्ष चैत संक्रांति के अवसर पर यहां एक सप्ताह तक मेले का आयोजन होता है। चैत संक्रांति को विशुआ संक्रांति भी कहा जाता है। महाभारत में जिस काम्यक वन का वर्णन किया गया था, वर्तमान समय में वह आज का ककोलत है। इसके अलावा, ककोलत पर्वत बहुत ही खूबसूरत पिकनिक स्थल है।फतेहपुर-गोविन्दपुर मार्ग पर थाली से पांच किलोमीटर दक्षिण वन में और नवादा जिला मुख्यालय से दक्षिण-पूर्व में 33 किलोमीटर की दूरी पर ककोलत स्थित है।

प्रजातंत्र द्वार
नवादा जिला मुख्यालय के प्रजातंत्र चौक पर स्थित प्रजातंत्र द्वार को देश की स्वतंत्रता का प्रतीक चिह्न माना जाता है। स्वतंत्रता पश्चात् प्रजातंत्र द्वार का निर्माण स्वर्गीय कन्हाई लाल साहु ने करवाया था। 26 जनवरी 1950 को पूर्ण रूप से निर्मित यह द्वार आज भी लोगों में भारतीय स्वतंत्रता के प्रति जज्बा पैदा करता है।
हंडिय़ा सूर्यमंदिर
नवादा जिले के नारदीगंज प्रखंड के हंडिय़ा गांव स्थित सूर्य नारायण धाम मंदिर काफी प्राचीन है। यह उन ऐतिहासिक सूर्य मंदिरों में से है जो लोगों की आस्था का प्रतीक बना है। मंदिर के आस-पास की गई खुदाई के समय प्रतीक चिन्ह और पत्थर के बने रथ मार्ग की लिंक के अवशेष प्राप्त हुए थे। माना जाता है कि इस मंदिर का सम्बन्ध द्वापर युग से रहा होगा। मंदिर के समीप एक तालाब स्थित है। ऐसा मान्यता है कि इस पानी में स्नान करने पर कुष्ठ रोग दूर हो जाते हैं। प्रत्येक रविवार को काफी संख्या में लोग यहाँ तालाब में स्नान एवं सूर्य मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं।
बाबा की मजार व हनुमान मंदिर
पटना-रांची मुख्य मार्ग पर नवादा में एकसाथ स्थित हजरत सैयद शाह जलालुद्दीन बुखारी की मजार और रामभक्त हनुमान मंदिर साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक माना जाता है। शुक्रवार के दिन बाबा के मजार पर यहाँ के हिन्दू व मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग चादर चढ़ाकर मन्नते मांगते हैं। वहीं प्रत्येक मंगलवार को हनुमान मंदिर में भक्तों की अपार भीड़ देखी जा सकती है। वैशाख शुक्ल पक्ष के अक्षय तृतीया को प्रत्येक वर्ष मंदिर का स्थापना दिवस मनाया जाता है। अजमेर शरीफ के उर्स के तुरंत बाद बाबा के मजार पर विशाल उर्स हर साल मनाया जाता है।
सीतामढ़ी
नवादा जिला मुख्यालय के दक्षिण-पश्चिम में लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर सीतामढ़ी स्थित है। प्राचीन काल से ही यह जगह एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध रहा है। यहां 16 फीट लम्बी और 11 फीट चौडी प्राचीन गुफा है। एक गोलनुमा चट्टान को काटकर कंदरा बनाया गया है जिसके भीतर पत्थरों पर पॉलीश की गयी है। पॉलीश के आधार पर इस गुफा को मौर्य कालीन माना जाता है। प्रचलित मान्यता है कि गुफा का निर्माण मानिक सम्प्रदाय के साधुओं को आश्रय देने के लिए किया गया था। किंतु स्थानीय लोग इसे निर्वासन काल में सीता का निवास स्थल मानते हैं। गुफा के भीतर देवी लक्ष्मी की मूर्ति स्थापित है। गुफा के बाहर की ओर एक चट्टान दो भागों में विभाजित है। इसे भी सीता जी के धरती में समाने की घटना से जोड़ा जाता है। इसके अतिरिक्त, स्थानीय लोगों का मानना है कि यह लव-कुश की जन्मभूमि है।
सेखोदेवरा
जिला मुख्यालय से लगभग 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सेखोदेवरा गांव है प्राकृतिक दृष्टि से अत्यंत मनोहर एवं दर्शनीय है। सेखो और देवरा नामक दो टोलों को मिलाकर सेखोदेवरा गांव बना है। गांव में सर्वोदय आश्रम है जिसकी स्थापना 1952 ई. में जयप्रकाश नारायण ने की थी। आश्रम से लगभग 500 मीटर की दूरी पर स्थित जंगल के बीच एक चट्टान को जेपी चट्टान के नाम से जाना जाता है। 1942 के स्वाधीनता आंदोलन के समय हजारीबाग जेल से भागकर प्रसिद्ध नेता एवं क्रांतिकारी स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण इन्ही चट्टानों के पास आकर छिपे थे।
नारद संग्रहालय
नारद संग्रहालय भारत के प्रमुख संग्रहालयों में से है। वर्ष 1973 ई. में नवादा के प्रथम जिला अधिकारी नरेन्द्र पाल सिंह के प्रयासों से यह संग्रहालय अस्तित्व में आया। संग्रहालय की इमारत दोमंजिला है। इसके प्रथम तल में भारत में प्राचीन सिक्कों के विकास को प्रदर्शित किया गया है। प्रारम्भिक पंच-मार्क सिक्कों से लेकर मुगल-कालीन सिक्कों के भारत में क्रमिक विकास को संग्रहालय में देखा जा सकता है। सोनसा गढ़ से प्राप्त मौर्य.कालीन हड्डी कलाकृति, शुंगकालीन मृमूर्तियां, मनके, मुहर एवं धातु निर्मित कलाकृतियों को संग्रहालय के विभिन्न दीर्घाओं में प्रदर्शित किया गया है। सोनसा गढ़ की खोज नारद संग्रहालय की एक उपलब्धि के रूप में माना जाता है। इसके अतिरिक्तए संग्रहालय में देवनगढ़ से प्राप्त मंजूश्री की प्रतिमा और धातु मूर्तियों में बौद्ध, जैन और हिन्दू धर्म से सम्बन्धित मूर्तियां प्रदर्शित की गई है। स्व. हीरालाल बबन जी द्वारा मुगलकालीन तलवार, कटार, ढाल के साथ ही प्रसिद्ध फारसी शायर हाफिज के शेर को चित्रों में उतारा गया है।

गुनियाजी तीर्थ
गुनियाजी तीर्थ नवादा जिले के गुनियाजी गांव में स्थित है। यह मंदिर जैन मुनि गंधार गौतम स्वामी को समर्पित है। माना जाता है कि गौतम स्वामी, महावीर जी के शिष्य थे। इसकी स्थापना जैनियों द्वारा की गई थी। यह प्राचीन मंदिर भगवान महावीर के समय का है। वर्तमान समय में इस मंदिर की देखरेख श्री जैन श्वेताम्बर भंडार ट्रस्ट कर रहा है।
शेख चिश्ती की दरगाह
जिले के हिसुआ प्रखंड में नरहट शेखपुरा में मध्यकालीन मुस्लिम सूफी संत ख्वाजा अब्दुल्ला चिश्ती की मजार हिंदुओं एवं मुस्लिम समुदाय के लिए श्रद्धा का स्थल है।
आवागमन
वायु मार्ग

यहाँ का सबसे निकटतम हवाई अड्डा पटना स्थित जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। नवादा से इसकी दूरी 98 किलोमीटर है।
रेल मार्ग
भारत के कई प्रमुख शहरों से रेलमार्ग द्वारा नवादा पहुंचा जा सकता है। गया-झाझा रेलखंड की बड़ी लाईन नवादा होकर गुजरती है। हिसुआ, नवादा, बाघी-बरडिहा, वारसलीगंज, बौरी-भोजवां जिले का महत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन रेलवे स्टेशन है। यहाँ से गया, झाझा, किऊल एवं रामपुरहाट के लिए पाँच जोड़ी गाडिय़ाँ चलती है। 3024/3023 हावड़ा-गया एक्सप्रेस यहाँ से गुजरनेवाली महत्वपूर्ण गाड़ी है।
सड़क मार्ग
नवादा सड़क मार्ग द्वारा बिहार के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-31 (अमरपुर-नवादा-सियाडिह-दिबौर खंड) एवं 85 ;तुंगी.हिसुआ.बानगंगाद्ध जिले से होकर गुजरती है जिनकी कुल लंबाई लगभग 83 किलोमीटर है। राजकीय राजमार्ग संख्या-8,70 एवं 82 का कुल 137.6 किलोमीटर एवं प्रमुख जिला सड़क का 106.4 किलोमीटर नवादा से होकर गुजरता है। हिसुआ एवं नवादा से गुजरनेवाली राजकीय राजमार्ग संख्या-8 की लंबाई 31 किलोमीटर एवं मुरली पहाड़ी, रजौली होकर गुजरनेवाली राजकीय राजमार्ग संख्या-70 21 किलोमीटर लंबी है।