Monday 31 December 2012

मगध एवं अंग संस्कृति का संधिस्थल शेखपुरा

शेखपुरा मगध एवं अंग संस्कृति का संधिस्थल है। इस पवित्र धरती का संबंध महाभारत काल, पालवंश तथा मुस्लिम शासकों से जुड़ा है। लोकगाथाओं में वर्णित है। गिरीहिंडा पहाड़ पर हुंडा नामक दानवी से महापराक्रमी भीम ने गंधर्व विवाह किया। उनके पुत्र हुंडारक हुए। कहा जाता है कि गौतम बुद्ध ने शेखपुरा के श्यामा पोखर पर रात्रि विश्राम किया था तथा मटोखर दहपर शिष्यों को उपदेश दिया था। पाल वंश के शासनकाल में शेखपुरा मुख्य प्रशासनिक केन्द्र था। मटोखर दह तथा पचना गांव में सरोवर तथा पचना पहाड़ पर खंडहर व पवनचक्की के अंश अभी भी विद्यमान है। मुस्लिम शासनकाल में शेखपुरा को कोतवाली का दर्जा मिला। बुजुर्गो के मुताबिक फरीद खान युवा काल में शिकार करते-करते शेखपुरा से 8 किलोमीटर पश्चिम उत्तर एक गांव में पहुंचे। रात्रि विश्राम किया। फरीदपुर आज भी है। यहीं शेर का शिकार करने के बाद उनका नाम शेरशाह पड़ा। धारणा है कि उन्होंने ही शहर के खांडपर पहाड़ को कटवाकर मार्ग बनवाया तथा पहाड़ से दक्षिण कुआं खुदवाया थाए जो आज दाल कुआं कहलाता है। इलाके का इतिहास अली इब्राहिम खान से लेकर अंतिम नवाब बाकर अली खान से जुड़ा है। कहते हैं। नवाब अली खान ने ठंड से परेशान सियारों में भी कम्बल बांटने का निर्देश दिया था। ब्रिटिश काल में शेखपुरा ने खान अब्दुल गफ्फार खान, डा.राजेन्द्र प्रसाद, स्वामी सहजानंद सरस्वती, रामधारी सिंह दिनकर, विनोबा भावे, डा. श्रीकृष्ण सिंह जैसे मनीषियों को अपनी ओर आकर्षित किया।
गिरिहिंडा पहाड़
 शेखपुरा को प्रकृति का अमूल्य वरदान हैं। इस पहाड़ की ऊंचाई लगभग 500 फीट है, जिसकी चोटी पर एक शिव मंदिर है। इसकी चोटी से नीचे देखने पर टेढी-मेढी नदियों के उजले रेत, बागीचों एवं उपवनों की झुरमुटे तथा लह-लहाते खेत अत्यंत ही मनोहर प्राकृतिक दृश्य उपस्थित करता है। जिला प्रशासन द्वारा इसे पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने हेतु इसके चोटी पर बाल उद्धान, कैंन्टीन, फव्वारा, हाई मास्ट लाईट तथा इसकी चोटी पर मोटरवाहन द्वारा पहुंचने हेतु 2200 फीट लम्बे पक्के सड़क का निर्माण कराया गया है।
पर्यटक स्थलों में शुमार होने की बाट जोह रहा मटोखर दह
प्रकृति की मनोरम गोद में अवस्थित शेखपुरा जिला का मटोखर दह (तालाब) एक पर्यटक स्थल होने की सारी अहर्ता रखने के बावजूद इस श्रेणी में शुमार होने की बाट जोह रहा है। टाटी नदी का किनारा और पहाड़ी इस क्षेत्र के अनुपम रूप में चार चांद लगा रही है। वैसे तो शेखपुरा के ईद-गिर्द अनेक मनमोहक स्थल है लेकिन पवित्रता एवं रमणीयता के कारण मटोखर दह एक अलग स्थान रखता है। इन दिनों मत्स्य विभाग इस तालाब को मछली उत्पादन के लिए कई खंडों में विभक्त कर रहा है, जो इस तालाब की विशालता व सौन्दर्य को कम कर रहा है।
मटोखर दह तालाब शेखपुरा जिला मुख्यालय से लगभग 7 किलोमीटर पश्चिम एवं शेखोपुरसराय प्रखंड से लगभग 9 किलोमीटर दूरी पर अवस्थित है। यहां जाने के लिए शेखपुरा से जीप, टमटम, रिक्शा आदि साधन मुहैया हैं। यह तालाब मटोखर नामक गांव के समीप है। इसलिए इसे मटोखर दह कहते है। इस दह के दक्षिण देवरा एवं पथरैटा तथा पश्चिम में लोदीपुर व ढेवसा सरीखे प्राचीन गांव बसे है। मटोखर दह का क्षेत्रफल एक किलोमीटर लम्बा एवं आधा किलोमीटर चौड़ा है। कालांतर में इसकी गहराई में कमी आयी है। पहले इसकी गहराई को लेकर तरह.तरह के कयास लगाये जाते थे। लोग एक छोर से दूसरे छोर तक जाने की शर्त लगाते थे, तैराकी की प्रतियोगिताएं होती थीं। इस तालाब को आर-पार करना कठिन माना जाता था। इस दह (तालाब) में कभी भी पानी नहीं सूखता था। सर्दी एवं गर्मी में अनेक प्रकार के प्रवासी पक्षी जल विहार करने आते थे। इस दह में कमल एवं कमलिनी का जाल बिछा थाए जो इसकी शोभा बढ़ाते थे। कमल के पत्तों का इस्तेमाल आसपास के गांवों में होने वाले भोज में पत्तल के रूप में किया जाता था। मटोखर गांव के लोगों एवं वहां के किसानों के लिए यह तालाब जीविका का साधन भी है। कृषि कार्य के लिए पूरे क्षेत्र में यह सिंचाई का एक मात्र साधन है। इस दह की रेहू मछली प्रसिद्ध है। इसलिए मत्स्य विभाग इस तालाब का तीन सालाना ठेका देता है। इतना ही नहीं मत्स्य विभाग ने दह (तालाब) को टुकड़ों व विभाजित कर दिया है जिससे इसकी विशालता व सौदर्य में कमी होनी शुरू हो गयी है। यह मटोखर दह हिन्दू-मुस्लिम आस्था का केन्द्र भी है। आज भी लोग यहां पिकनिक मनाने आते है। इस तालाब के निर्माण के संबंध में तरह-तरह की किदंतियां प्रचारित है। कुछ लोग इसे द्वापर काल में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता बलराम के आदेश पर ग्वाल बालों द्वारा खुदवाया मानते है। कुछ लोग इसे महाबली भीम द्वारा खुदवाया बताते है। कई इसे एक राजा द्वारा दही बेचने वाले के आग्रह पर खुदवाया गया बताते है।
'ख्वाजा बदरूद्दीनÓ नामक फकीर के कहने पर तालाब निर्माण की बात मानने वालों की भी कमी नहीं। प्रमाण के तौर पर तालाब किनारे अवस्थित दरगाह है जो मुस्लिमों एवं हिन्दुओं की आस्था का केन्द्र है। जानकारों का कहना है कि तालाब के उत्तर और दक्षिण की ओर टीले हैए जो इसके वास्तु के लिहाज से द्वापरयुगीन होने की पुष्टि करते हैं। पूर्व में शेखपुरा के रह चुके जिलाधिकारी आनंद किशोर ने इसके सौंदर्यीकरण का प्रयास कियाए जो अधूरा ही रह गया। वर्तमान में पर्यटन विभाग द्वारा सौंदर्यीकरण के प्रयास किये जा रहे है। बहरहाल जिला प्रशासन ने इस रमणीक स्थल के आस-पास के इलाके को पालिटेकनिक कालेज व केन्द्रीय विद्यालय खोले जाने के लिए चिह्नित किया है।
सोनरवा दुर्गा का मंदिर
दशहरा पर देवी दुर्गा की प्रतिमा स्थापित करने का शेखपुरा में इतिहास ढाई सौ साल पुराना है। बताया जाता है कि शहर के स्वर्णकारों ने सबसे पहले सन 1760 के आसपास मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की थी। तब यहां के स्वर्णकार समाज के जाने-माने दाहू सोनार के परदादा ने प्रतिमा स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अब वर्तमान में दाहू सोनार का कोई सदस्य शेखपुरा में नहीं है। सबसे पुरानी प्रतिमा के कारण सोनरवा दुर्गा को शेखपुरा की बड़ी महारानी का दर्जा प्राप्त है। पूजा समिति से जुड़े अशोक कुमार स्वर्णकार बताते हैं कि आजादी के काफी साल पहले इस प्रतिमा के विसर्जन जुलूस की शोभा यात्रा को लेकर विवाद हुआ था तो इसका निर्णय इग्लैंड की तत्कालीन महारानी एलिजावेथ ने किया था तथा पूजा समिति के पक्ष का समर्थन किया था। सबसे पहले यह प्रतिमा मड़पसौना में स्थापित की गयी थी। बाद में स्वर्णकार समाज के लोगों ने 1960 के दशक के कमिश्नरी बाजार में स्थायी स्थान दे दिया।
उत्तर भारत का तिरूपती सामस का विष्णुधाम
शेखपुरा जिले बरबीघा थाना क्षेत्र के सामस गांव में स्थित है विष्ण की यह आदमकद प्रतिमा। यह प्रतिमा तिरूपती में स्थित बाला जी प्रतिमा से एक फीट अधिक उंची है तथा इसकी उंचाई सात फिट छह इंच है जिसकी वजह से यह विश्व में पूजी जाने वाली विष्णु की सबसे उंची प्रतिमा है। यह प्रतिमा 1992 में तलाब की खुदाई के क्रम में निकली थी जिसके बाद ग्रामीण स्तर पर एक मंदिर बनाया गया तथा इसको लेकर अभियान चलाया जाने लगा। आखिरकर बिहार धार्मिक न्यास बोर्ड के अध्यक्ष किशोर कुणाल की नजर इस पर पड़ी और इसको लेकर पहल प्रारंभ कर दिया गया और आखिरकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यहां आकर लोगों को अश्वस्त किया कि इसका विकास पर्यटक क्षेत्र के रूप में किया जाएगा। इस प्रतिमा की खासीयत यह है कि यह पाल काल का बना हुआ बताया जाता है तथा विष्णु के हाथ में शंख, चक्र, गदा और पद्म भी है। इसके विकास को लेकर स्थानीय सांसद भोला ंिसह के द्वारा भी संसद में सवाल उठाया गया था। ठसी को लेकर उत्तर बिहार के तिरूपती कहे जाने वाले जिले के बरबीघा के सामस गांव में स्थित विष्णु की भव्य प्रतिमा को देखने तथा यहां पर्यटन की संभावनाओं को तलाशने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यहां का दौरा किया। इस अवसर पर मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रतिमा स्थल को विकसीत कर उसे पर्यटन क्षेत्र के रूप में विकसित करने का आश्वासन दिया। मुख्यमंत्री ने अपने संबोधन में कहा कि बिहार के तिरूपती के रूप में विकसीत कर इस क्षेत्र के विकास को लेकर अगले माह में पटना में एक विशेष बैठक बुलाई जाएगी जिसमें मंदिर विकास कमिटि के लोग, जिला प्रशासन, स्थानीय जनप्रतिनिधी तथा धार्मिक न्यास बोर्ड के अध्यक्ष के अलावा पुरात्तव से जुडे लोगों के साथ बैठक कर मंदिर के विकास की रूपरेख तय की जाएगी।


Sunday 30 December 2012

मगध का एक छोटा सा हिस्सा जहानाबाद

 प्रसिद पुस्तक 'आईना.ए.अकबरीÓ में जहानाबाद का जिक्र किया गया है। 17 वीं शताब्दी मे औरंगजेब के शासनकाल में यहाँ एक भीषण अकाल पड़ा था। भूख के कारण प्रतिदिन सैकड़ों लोग काल का ग्रास बन रहे थे। ऐसी परिस्थिति मे मुगल बादशाह ने अपनी बहन जहानआरा के नेतृत्व में एक दल अकाल राहत कार्य हेतु भेजा। जहानआरा के स्मृति मे इस स्थान का नाम जहानआराबाद जो कालांतर मे 'जहानाबादÓ  के नाम से हुआ।  प्राचीनकाल के इतिहास की ओर रुख करें तो यह क्षेत्र मगध का एक छोटा सा हिस्सा था। इस जिला के मखदुमपुर प्रखंड में अवस्थित बराबर पहाड़ भौगोलिक, ऐतिहासिक धार्मिक एवं पर्यटन की दृष्टि से प्राचीन काल से ही अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है।  प्रखंड मुख्यालय से 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस पर्वत की चोटी के मध्य मे बाबा सिद्धेश्वरनाथ उर्फ  भगवान शंकर का अत्यंत प्राचीन मन्दिर है। मगध सेनापति बाणावर ने अपने प्रवास के दौरान एक विशाल मन्दिर का निर्माण कराया था। जो आज दबा पड़ा है। इसी पर्वत की चोटी पर सम्राट अशोक ने अपनी एक रानी की मांग पर आजीवक सम्प्रदाय के साधुओं के लिए गुफाओं का निर्माण कराया। जो आज भी उसी स्थिति मे विद्धमान है। ये गुफा, विश्व की प्रथम मानव निर्मित गुफाओं के रुप में जानी जाती है। अशोक के पोत्र दशरथ ने भी बोद्ध भिक्षुओं के लिए कुछ गुफाओं का निर्माण कराया गुफाओं के अदर ग्रेनाइट पत्थर चिकनाहट की कला अभूतपूर्व है। पत्थर छूने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो मिस्त्री अभी उठकर बाहर गए हो। ऐसा माना जाता है कि इसी पर्वत पर खुदा तालाब पर ब्राहण विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ कर बुद्ध यहाँ से फल्गु नदी के मार्ग से बोध-गया गए थे। अत: ऐतिहासिक द्रष्टि से इस स्थान का बहुत महत्व है।
 महत्व के स्थान
भेलावर
  जहानाबाद रेलवे स्टेशन से दक्षिण-पूर्व लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर काको प्रखड  मे भेलावर ग्राम अवस्थित है। यह शिव भगवान के पुराने मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है। ग्राम के बाहर से ही आज भी मन्दिर के आहाते के पथरीले द्वार के बचे हुए भाग को देखा जा सकता है। हिन्दु ओर मुस्लिम काल की कला के नमूने की खोज भी यहाँ की गई है। यहाँ प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि के अवसर पर एक बङा मेला लगता है।
काको
  जहानाबाद रेलवे स्टेशन के लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर जहानाबाद बिहार.शरीफ रोड मे अवस्थित काको प्रखड का मुख्यालय है। स्थानीय कथनानुसार श्री रामचन्द्र के सौतेली माँ रानी केकइ कुछ समय यहाँ वास ग्रहण की थी। उन्हीं के नाम पर इस ग्राम का नाम काको पङा। एक बहुत बङी मुस्लिम सूफिया हजरत बीबी कमाल साहिबा का मकबरा भी इस ग्राम में है। कहा जाता है कि बिहार-शरीफ  के ह्जरत मखदुम साहब की यह चाची थी और रुहानी ताकत रखती थी। बिहार के कोने-कोने से बङी संख्या मे श्रधालु आते है और मनोकामना पाते है। ग्राम के उत्तर-पश्चिम में एक मन्दिर है, जिसमें सूर्य भगवान की एक बहुत पुरानी मूर्ति स्थापित है। प्रत्येक रविवार को बङी संख्या मे लोग पूजा करने के लिए आते है।
भैख
  यह ग्राम मखदुमपुर प्रखड मुख्यालय से लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यहाँ पहाड़ी की चोटी पर सिधेश्वरनाथ से भगवान शिव का ईश्वरीय प्रतीक है। करना चौपार और सुदामा नाम की दो गुफाएँ,  जिनका सम्बन्ध महाराजा अशोक से है। इस पहाङी पर है। कहा जाता है कि महाराजा अशोक ने इसके निकट ही एक झील बनवाई थी, जिसे पटल-गंगा के नाम से पुकारा जाता है। चीनी यात्री हियुनसांग ने इस स्थान का दर्शन किया था और अपनी यात्रा पुस्तक मे इसका उल्लेख भी किया है।
घेजन
  जहानाबाद में दक्षिण-पूर्व लगभग 19 किलोमीटर की दूरी पर कुर्था प्रखन्ड में स्थित एक प्राचीन ग्राम है। यहाँ एक पुराना गढ है जहाँ गुप्त काल की पत्थर की मूर्तियाँ पाई गई है। इन मूर्तियों को पटना के अजायबघर में सुरक्षित रखा गया है।
आमथुआ
  यह जिला मुख्यालय से 7 कि0 मी0 पूर्व में है। मुगल काल में अमूल्य धरोहर जिसमें मुगल कालीन प्रमाण पर बना एवं सरकारी पथ पाए गए थे। जो फिलहाल पटना के खुदाबख्श लाइब्रेरी पुस्तकालय में मौजूद है। गाँव के दक्षिण मे शेरशाह की बनाई मस्जिद भी है। इसके अतिरिक्त यहाँ बहुतेरे महापुरुषों की कब्रें है जिनमें एक शेख चिस्ती की है।
ओकरी
 यह जिला मुख्यालय से 18 कि0 मी0 उतर-पूर्व में फल्गु नदी के तट पर स्थित है। पूरा गाँव टिलहा पर बसा है। ओकरी परगना इसी गाँव के नाम पर है। इस परगना में फ्रांसिसी बुकानन के काल मे 132000 विगहा जमीन थी। कुछ जगहों पर खुदाई के दरम्यान कई मूर्तियों के साथ ब्राह्यीलिपि अभिलेख वाले 4 स्तम्भ भी प्राप्त हुए है ।
केउर
 जिला मुख्यालय से 30 कि0 मी0 दक्षिण-पूर्व में बसे इस गाँव मे प्रसिद्ध इतिहासकार एवं पुरात्त्वविद ए0 बनर्जी ने 1939 ई0 में इस गाँव का निरीक्षण किया था। यहाँ एक बहुत बडा गढ है। जिसकी ऊचाई 40 फीट है। इस गढ की खुदाई के दरम्यान पाल काल के बहुत सारे मूर्तियाँ मिली है जो 10 वीं एवं 12 वीं सदी की है। खुदाई के क्रम में  यहाँ बड़ी-बड़ी ईटें प्राप्त हुई है। जिसकी लं0 14 इंच चौडाई 8 1ध्2 इंच एवं ऊचाई 3 इंच है। इतिहासकार शास्त्री ने इस गाँव की तुलना नालन्दा से करते हुए कहा था लगता है कि यह पाल कालीन बौद्ध विश्वविद्यालय विक्रमशीला यही अवस्थित है।
दाउदपुर
 यह गाँव जिला मुख्यालय से 28  कि0 मी0 पूर्व में स्थित है। इस गाँव का निरिक्षण फ्रासिसी बुकान्न ने 1811-12 ई0 में तथा ब्राडले ने 1872 में किया था। इनलोगों ने अपने प्रतिवेदन मे बताया है कि इस गाँव का पूर्व में नाम देवस्ति, देव्स्थु,  दप्थु, दाउथु था। यहाँ मिट्टी का गढ भी है तथा गढ के दक्षिण-पूर्व में मुस्लिम संत का मजार है। मजार के दक्षिण-पूर्व में एक विशाल मन्दिर पारसनाथ के नाम से ख्याति प्राप्त है जिसे बौद्ध मन्दिर भी माना जाता है। इस मन्दिर के दक्षिण में वासुदेव,  लक्ष्मीनारायण जगदम्बा नृत्य मुद्रा में पार्वती-शिव की मूर्तियाँ है। ये बातें फ्रांसिसी यात्री बुकानन के द्वारा लिखी गयी थी। लेकिन आज की स्थिति में वहाँ सिर्फ अवशेष मिलेगे। वहाँ की कुछ मूर्तियाँ गया संग्रहालय में उपलब्ध है।

लाट
यह जिला मुख्यालय से करीब 35 कि0 मी0 पूर्व-दक्षिण के कोण पर स्थित है। यहाँ एक गोलाकार लम्बा स्तम्भ है जिसकी लम्बाई 53.5 फीट गोलाई 3.5 फीट व्यास की है। यह उतर से दक्षिण की ओर आधी जमीन में तथा आधी जमीन की सतह पर है। हाल में कुछ पुरातत्वविदों ने इस मरहौली लौह स्तम्भ का साँचा बताया है।
जारु
 जिला मुख्यालय से करीब 40 कि0 मी0 पूर्व-दक्षिण के कोण पर है। यहाँ एक प्राचीन मन्दिर का अवशेष मिला है जो स्थात्व कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। स्थानीय लोग इसे शेरशाह के काल का बताते है। बगल में स्थित पर्वत पर एक बहुत बङा शिवलिंग है। इसे हरिहर नाथ के नाम से जाना जाता है। यहाँ मेला भी लगता है।
धराउत
 जिला मुख्यालय से करीब 22 कि0 मी0 दक्षिण तथा बराबर पहाङी से 05 कि0 मी0 उतर. पूर्व मे स्थित है। यहाँ एक विशाल बौद्ध मठ चीनी यात्री व्हेन-सांग के काल में था। चीनी यात्री व्हेन.सांग ठहरे भी थे। जिसका उल्लेख उन्होंने अपने यात्रा वृतांत में किया है। इस गाँव के ऐतिहासिक एवं पुरातत्व विभाग को देखते हुए कई पुरातत्वविदो ने विभिन्न समयों में यहाँ का निरीक्षण किया है। जिनमे मेजर किट्टी ने 1847 ई0 कलिंघम ने 1862 ई0 और 1880 ई0 में बेलगार ने 1892 ई0, डा0 गिरियेसेन ने 1900 ई0,  डा0 हरिकिशोर ने 1954 में इसका निरीक्षण किया, इस गाँव का पूर्व में कई नाम थे जिनमे धरमपुर, कंचनपुर, धरमपुरी, धरमावर आदि प्रमुख है। यहाँ की बहुत सारी मुर्तियाँ पटना संग्रहालय मे उपलब्ध है। इस गाँव की विगत बहुत सारी टिल्हे एवं गढ है। यदि जिसकी खुदाई की जाए तो इस गाँव में और भी ऐतिहासिक तथ्य सामने आयेगी।
जहानाबाद बिहार की राजधानी पटना से रेलमार्ग द्वारा 45 कि0 मी0 की दूरी तथा सङक मार्ग से 56 कि0 मी0 दूरी पर जहानाबाद का मुख्यालय है। दरधा नदी एवं यमुना नदी के संगम पर स्थित है। सम्पूर्ण जिले की भूमि समतल मैदानी क्षेत्र है। नदियाँ सोन,  पुनपुन,  फक्गु, दरधा और यमुना इस जिले से होकर गुजरती है। सिर्फ सोन नदी एवं पुनपुन नदी जहानाबाद जिले के पश्चिमी किनारे को छूती हुई गुजरती है एवं सदा बहनेवाली नदी है। मौसमी नदियाँ दरधा,  यमुना, ऑर फल्गु कभी-कभी भयानक रुप धारण कर लेती है। फल्गु नदी को हिन्दु समुदाय आदर की नजर से देखते है और इसके किनारे पर अपने पूर्वजों को पिंड दान का धार्मिक कार्य करते है।

प्राचीन जिलों में से एक है बांका

बिहार के प्राचीन जिलों में से एक है बांका। इसका जिला मुख्यालय बांका शहर है। यह जिला विशेष रूप में मकर सक्रांति के अवसर पर चौदह दिनों तक चलने वाले मेले के लिए जाना जाता है। यह मेला मन्दार पर्वत पर लगता है। इसके अतिरिक्त, पापहरणी कुंड, लक्ष्यद्वीप मंदिर, रुपस, अमरपुर, असौटा, ज्येष्ठ गौर मठ और श्रावण मेला आदि यहां के दर्शनीय स्थलों में से हैं।  भारत को स्वतंत्रता दिलाने में भी इस जगह की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। बांका जिला बिहार राज्य के दक्षिण-पूर्व की ओर स्थित है। यह जिला झारखंड राज्य के गोण्डा जिला के पूर्व और दक्षिण सीमा, जुमई के पश्चिम, मुंगेर जिले के उत्तर-पूर्व और भागलपुर के उत्तरी सीमा से लगा हुआ है। अगर आप घूमने का प्लान बना रहे हैं तो बांका जिला में घूमने के अनेकों स्पॉट हैं,जहां आप आकर बेहतर महशूस करेंगे।

कहां जाएं                                                      

पापहरणी कुंड

 इस प्राचीन कुंड को पापहरणी के नाम से जाना जाता है। इस कुंड तक पहुंचने के लिए पर्वत में तीन रास्ते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार कर्नाटक के राजा यहां पर आए थे और मकर सक्रांति में दिन उन्होंने इस कुंड में स्नान किया था। कुंड में स्नान करने से उनके सभी रोग दूर हो गए थे। कुछ लोगों का मानना था कि उन्हें कोढ़ रोग था। इस पर्वत पर भगवान मधुसूदन का मंदिर भी है। काफी संख्या में लोग प्रतिदिन उनके दर्शनों के लिए यहां आते हैँ। एक अन्य कथा के अनुसार, एक भगवान बुंसी के रास्ते से जा रहे थे तो काल पहर के बाद इस मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। माना जाता है कि शायद ऐसा कुछ मुसलमानों ने किया था। इस कारण भगवान मधुसूदन को बुंसी से प्रत्येक वर्ष हाथी पर बैठाकर लाया जाता है और फिर उनकी पूजा कर उन्हें वापिस उनके स्थान पर छोड़ दिया जाता है।
मंदिर के रास्ते में अन्य कई और मंदिर भी है। पापहरणी कुंड के मध्य में महाविष्णु, महालक्ष्मी जैसे खूबसूरत मंदिरों का निर्माण किया गया है। वर्तमान समय में कुछ मंदिर नष्ट हो चुके हैं। इसके अलावा, यहां दो जैन मंदिर भी है। काफी संख्या में जैन धर्म के लोग भगवान बसुपूज्य की आराधना के लिए यहां आते हैं। माना जाता है कि यह स्थान बसुपूज्य की निर्वाण भूमि है। इस पर्वत पर कई अन्य कुंड जैसे आकाश गंगा और सनख कुंड भी है। सबसे अधिक प्रसिद्ध सीता कुंड है। माना जाता है कि देवी सीता ने इस कुंड में स्नान किया था, जिसके पश्चात् इस कुंड को सीता कुंड के नाम से जाना जाता है।
लक्ष्यद्वीप मंदिर
 यह मंदिर अब नष्ट हो चुका है। लेकिन आज भी पर्वत पर इस मंदिर के कुछ अवशेष देखे जा सकते हैं। पूर्व समय में इस मंदिर को एक लाख द्वीपों से जगमगाया गया था। इसके लिए हर घर से एक मोमबत्ती लाई गयी थी। प्राचीन समय में इस क्षेत्र को बलिशा के नाम से भी जाना जाता था। बलिशा पुराण के अनुसारए यह भगवान शिव की सिद्ध पीठ थी। पर्वत के सबसे ऊंचे भाग पर एक विशाल मंदिर स्थित है। इस मंदिर में भगवान राम ने स्वयं भगवान मधुसूदन की स्थापना की थी। वर्तमान समय में स्थित इस मंदिर का निर्माण जहांगीर के समय में करवाया गया था। इस मंदिर को नाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्तए यहां पर एक विद्यापीठ भी है। काफी संख्या में लोग दूर.दूर से यहां ज्ञान प्राप्त करने के लिए आते हैं। प्रत्येक वर्ष मकर संक्रांति के अवसर के यहां बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है।
रुपस
चन्दन नदी के तट पर स्थित यह गांव भागलपुर-दुमका मार्ग के पश्चिम से लगभग छह किलोमीटर की दूरी पर है। यह काफी प्राचीन गांव है। गांव में देवी काली और दुर्गा का प्राचीन मंदिर है। प्रत्येक वर्ष काली पूजा और दुर्गा पूजा के अवसर पर यहां बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। काफी संख्या में लोग इस मेले में सम्मिलित होते हैं।
अमरपुर
बांका से लगभग 19 किलोमीटर की दूरी पर अमरपुर खण्ड स्थित है। भागलपुर से अमरपुर 26 किलोमीटर की दूरी पर है। पौराणिक कथा के अनुसारए इस गांव की स्थापना बिहार के गर्वनर शाह उमर वाजिर ने की थी।
असौटा
कहा जाता है कि इस गांव की स्थापना महारानी चन्दरजोती ने की थी। वह खारगपुर से यहां पर आई थी। महारानी ने यहां पर एक किले और असौटा सरोवर कुंड का निर्माण करवाया था। इसके अलावा, उन्होंने अपने पुत्र के लिए यहां एक मस्जिद का निर्माण करवाया था। कुछ समय बाद यह किला और मस्जिद नष्ट कर दी गई थी।
ज्येष्ठ गौर मठ
 चन्दन नदी के तट पर स्थित यह जगह अमरपुर के पूर्व से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ज्येष्ठ गौर स्थान शिव मंदिर है जो कि पर्वत पर स्थित है। पर्वत के सबसे ऊंचे हिस्से को ज्येष्ठ गौर पहर के नाम से जाना जाता है। यहां पर एक काली मंदिर और प्राचीन कुंआ भी है। प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि के अवसर पर यहां बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है।
श्रावण मेला
 प्रत्येक वर्ष श्रवण माह में (जुलाई-अगस्त) में भक्त (कावडिय़ा) जब सुल्तानगंज से देवघर से रास्ते जाते हैं तो वह साथ में भगवान शिव को गंगा जल चढ़ाने के लिए ले जाते हैं। पूरे एक माह तक इस मार्ग में भक्तों की काफी भीड़ रहती है।
अनूठा गांव : कुमारडीह
आज जहां मांसाहार के प्रति लोगों का रूझान बढ़ रहा है वहीं बिहार के बांका जिले में आज भी एक ऐसा गांव है जहां नई नवेली दुल्हन को प्रवेश से पूर्व ही शाकाहारी होने का संकल्प लेना पड़ता है।  बांका जिला मुख्यालय से लगभग 35 किलोमीटर दूर आराहाट तथा धोरैया प्रखंड की सीमा पर कुमारडीह गांव स्थित है। यहां की आबादी करीब 350 है। यहां अधिकांश लोग यादव जाति के हैं। इस गांव में वधू को प्रवेश से पूर्व आजीवन शाकाहारी होने का संकल्प लेना पड़ता है। यहां मान्यता है कि यदि कोई दुल्हन भूलवश मांस का सेवन कर लेती है तो उसे गंगा स्नान करके ही इस पाप से मुक्ति मिल सकती है। गांव के बुजुर्ग राजेन्द्र यादव की मानें तो गांव में इस परंपरा का चलन काफी पुराना है। उन्होंने बताया कि लगभग दो-ढाई सौ वर्ष पूर्व पूरे गांव में 10 वर्ष तक किसी भी दंपत्ति को संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी। तभी कोई बाबा आए जिन्होंने यहां के लोगों को मांसाहार नहीं करने की सलाह दी। तभी से इस गांव में मांसाहार पूरी तरह से बंद है और नई दुल्हनों को भी यहां प्रवेश के पूर्व ही शाकाहरी रहने का संकल्प लेना पड़ता है। यही नहीं अगर इस गांव के लोग अपनी लड़की का विवाह भी तय करते हैं तो उस संबंधी से पहले ही निवेदन किया जाता है कि उनकी बेटी को मांस और मछली खाने के लिए दबाव नहीं डाला जाएगा। वह बताते हैं कि यहां के लोगों की कोशिश तो यही होती है कि किसी ऐसे परिवार में रिश्ता ही नहीं किया जाए जहां मांस का सेवन होता है। वह बताते हैं कि यहां के लोग अपने बेटे या बेटी की शादी तय होने के पूर्व ही इस बात को बता देते हैं। शाकाहार के प्रति निष्ठा का आलम यह है कि यहां के लोग गांव के बाहर भी जाते हैं तो अपने साथ खाने-पीने का सामान साथ ले जाते हैं। यहां के समारोहों में मांस का कोई स्थान नहीं होता है।
कैसे जाएं
वायु मार्ग : यहां का सबसे निकटतम हवाई अड्डा जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। पटना से बांका 263 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
रेल मार्ग : सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन बांका जंक्शन है। रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से यहां पहुंचा जा सकता है।
सड़क मार्ग : भारत के कई प्रमुख शहरों से बांका सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है।

मिथिला प्रदेश का अंग : समस्तीपुर


समस्तीपुर राजा जनक के मिथिला प्रदेश का अंग रहा है। विदेह राज का अंत होने पर यह वैशाली गणराज्य का अंग बना। इसके पश्चात यह मगध के मौर्य, शुंग, कण्व और गुप्त शासकों के महान साम्राज्य का हिस्सा रहा। ह्वेनसांग के विवरणों से यह पता चलता है कि यह प्रदेश हर्षवर्धन के साम्राज्य के अंतर्गत था। 13 वीं सदी में पश्चिम बंगाल के मुसलमान शासक हाजी शम्सुद्दीन इलियास के समय मिथिला एवं तिरहुत क्षेत्रों का बँटवारा हो गया। उत्तरी भाग सुगौना के ओईनवार राजा के कब्जे में था जबकि दक्षिणी एवं पश्चिमी भाग शम्सुद्दीन इलियास के अधीन रहा। समस्तीपुर का नाम भी हाजी शम्सुद्दीन के नाम पर पड़ा है। शायद हिंदू और मुसलमान शासकों के बीच बँटा होने के कारण ही आज समस्तीपुर का सांप्रदायिक चरित्र समरसतापूर्ण है। ओईनवार राजाओं को कलाए संस्कृति और साहित्य का बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है। शिवसिंह के पिता देवसिंह ने लहेरियासराय के पास देवकुली की स्थापना की थी। शिवसिंह के बाद यहाँ पद्मसिंह, हरिसिंह, नरसिंहदेव, धीरसिंह, भैरवसिंह, रामभद्र, लक्ष्मीनाथ, कामसनारायण राजा हुए। शिवसिंह तथा भैरवसिंह द्वारा जारी किए गए सोने एवं चाँदी के सिक्के यहाँ के इतिहास ज्ञान का अच्छा स्त्रोत है। अंग्रेजी राज कायम होने पर सन 1865 में तिरहुत मंडल के अधीन समस्तीपुर अनुमंडल बनाया गया। बिहार राज्य जिला पुनर्गठन आयोग के रिपोर्ट के आधार पर इसे दरभंगा प्रमंडल के अंतर्गत 14 नवम्बर 1972 को जिला बना दिया गया। अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध हुए स्वतंत्रता आंदोलन में समस्तीपुर के क्रांतिकारियों ने महती भूमिका निभायी थी। यहाँ के कर्पूरी ठाकुर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रहे हैं।
विद्यापतिनगर, मालीनगर, मंगलगढ़, जगेश्वर स्थान, पूसा, मुसरीघरारी, हसनपुर मार्ग और थानेश्वर मंदिर आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से है। इस जिले का संबंध प्रसिद्ध मैथिली कवि विद्यापति और प्रसिद्ध उपन्यासकार देवकी नन्दन खत्री से रहा है। यह जिला बागमती नदी के उत्तर, वैशाली और मुजफ्फरपुर जिले के कुछ भाग के पश्चिम, गंगा नदी के दक्षिण और बेगुसराय तथा खगरिया जिले के कुछ हिस्से के पूर्व से घिरा हुआ है। इसका जिला मुख्यालय समस्तीपुर शहर है।
पर्यटन स्थल
विद्यापतिनगर
शिव के अनन्य भक्त एवं महान मैथिल कवि विद्यापति ने यहाँ गंगा तट पर अपने जीवन के अंतिम दिन बिताए थे। ऐसी मान्यता है कि अपनी बीमारी के कारण विद्यापति जब गंगातट जाने में असमर्थ थे तो गंगा ने अपनी धारा बदल ली और उनके आश्रम के पास से बहने लगी। वह आश्रम लोगों की श्रद्धा का केंद्र है।
करियन
महामहिषी कुमारिलभट्ट के शिष्य महान दार्शनिक उदयनाचार्य का जन्म 984 ईस्वी में शिवाजीनगर प्रखंड के करियन गाँव में हुआ था। उदयनाचार्य ने न्याय, दर्शन एवं तर्क के क्षेत्र में लक्षमणमाला, यायकुशमांजिली, आत्मतत्वविवेक, किरणावली आदि पुस्तकें लिखी जिनपर अनगिनत संस्थानों में शोध चल रहा है। दुर्भाग्य से यह महत्वपूर्ण स्थल सरकार की उपेक्षा का शिकार है।
मालीनगर
यहाँ 1844 में बना शिवमंदिर है जहाँ प्रत्येक वर्ष रामनवमी को मेला लगता है। मालीनगर हिंदी साहित्य के महान साहित्यकार बाबू देवकी नन्दन खत्री एवं शिक्षाविद राम सूरत ठाकुर की जन्म स्थली भी है।
मंगलगढ
यह स्थान हसनपुर से 14 किलोमीटर दूर है जहाँ प्राचीन किले का अवशेष है। यहाँ के स्थानीय शासक मंगलदेव के निमंत्रण पर महात्मा बुद्ध संघ प्रचार के लिए आए थे। उन्होंने यहाँ रात्रि विश्राम भी किया था। जिस स्थान पर बुद्ध ने अपना उपदेश दिया था वह बुद्धपुरा कहलाता था जो अब अपभ्रंश होकर दूधपुरा हो गया है।
जगेश्वरस्थान (बिभूतिपुर)
नरहन रेलवे स्टेशन से 15 किलोमीटर की दूरी पर बिभूतिपुर में जगेश्वरीदेवी का बनवाया शिव मंदिर है। अंग्रेजों के समय का नरहन एक रजवाड़ा था जिसका भव्य महल बिभूतिपुर में मौजूद है। जगेश्वरी देवी नरहन स्टेट के वैद्य भाव मिश्र की बेटी थी।
मोरवा अंचल में कुंदनेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना एक मुस्लिम द्वारा यहाँ शिवलिंग मिलने पर की गयी थी। मंदिर के साथ ही महिला मुस्लिम संत की मजार हिंदू और मुस्लिम द्वारा एक साथ पूजित है
मुसरीघरारी
राष्ट्रीय राजमार्ग 28 पर स्थित यह एक कस्बा है जहाँ का मुहरर्म तथा दुर्गा पूजा का भव्य आयोजन होता है।
संत दरियासाहेब का आश्रम
बिहार के सूफी संत दरिया साहेब का आश्रम जिले के दक्षिणी सीमा पर गंगा तट पर बसा गाँव धमौन में बना है। यहाँ निरंजन स्वामी का मंदिर भी है। थानेश्वर शिवमंदिर, खाटू-श्याम मंदिर एवं कालीपीठ समस्तीपुर जिला मुख्यालय का महत्वपूर्ण पूजा स्थल है।
यातायात सुविधाएँ
सड़क मार्ग
समस्तीपुर बिहार के सभी मुख्य शहरों से राजमार्गों द्वारा जुड़ा हुआ है। यहाँ से वर्तमान में दो राष्ट्रीय राजमार्ग तथा तीन राजकीय राजमार्ग गुजरते हैं। मुजफ्फरपुर, मोतिहारी होते हुए लखनऊ तक जानेवाली राष्ट्रीय राजमार्ग 28 है। राष्ट्रीय राजमार्ग 103 जिले को चकलालशाही, जन्दाहा, चकसिकन्दर होते हुए वैशाली जिले के मुख्यालय हाजीपुर से जोड़ता है। हाजीपुर से राष्ट्रीय राजमार्ग 19 पर महात्मा गाँधी सेतु पारकर राजधानी पटना जाया जाता है। जिले में राजकीय राजमार्ग संख्या 49ए 50 तथा 55 की कुल लंबाई 87 किलोमीटर है।
रेल मार्ग
समस्तीपुर भारतीय रेल के नक्शे का एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। यह पूर्व मध्य रेलवे का एक मंडल है। दिल्ली-गुवाहाटी रूट पर स्थित रेललाईनें एक ओर शहर को मुजफ्फरपुर,हाजीपुर, छपड़ा होते हुए दिल्ली से और दूसरी ओर बरौनी, कटिहार होते हुए गुवाहाटी से जोड़ती है। इसके अतिरिक्त यहाँ से मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, जम्मू, अमृतसर, गुवाहाटी तथा अन्य महत्वपूर्ण शहरों के लिए सीधी ट्रेनें उपलब्ध है।
वायु मार्ग:
समस्तीपुर का निकटस्थ हवाई अड्डा 65 किलोमीटर दूर पटना में स्थित है। लोकनायक जयप्रकाश हवाई क्षेत्र पटना से अंतर्देशीय तथा सीमित अन्तर्राष्ट्रीय उड़ाने उपलब्ध है। इंडियन, किंगफिशर, जेट एयर, स्पाइस जेट तथा इंडिगो की उड़ानें दिल्ली, कोलकाता और राँची के लिए उपलब्ध हैं।

Saturday 29 December 2012

हिरणों का वन : सारंग अरण्य यानि सारन


महाजनपद काल में सारन की भूमि कोसल का अंग रहा है। कोसल राज्य के उत्तर में नेपाल, दक्षिण में सर्पिका (साईं) नदी, पुरब में गंडक नदी तथा पश्चिम में पांचाल प्रदेश था। इसके अंतर्गत आज के उत्तर प्रदेश का फैजाबाद, गोंडा, बस्ती, गोरखपुर तथा देवरिया जिला के अतिरिक्त बिहार का सारन क्षेत्र आता है। आठवीं सदी में यहाँ पाल शासकों का आधिपत्य था। जिले के दिघवारा के निकट दुबौली से महेन्द्रपाल देव के समय 898 ईस्वी में जारी किया गया ताम्रफलक प्राप्त हुआ है।
सारन की भूमि वनों के असीम विस्तार और इसमें विचरने वाले हिरणों के कारण प्रसिद्ध था। हिरण (सारंग) एवं वन (अरण्य) के कारण इसे सारंग अरण्य कहा गया जो कालक्रम में बदलकर सारन हो गया। ब्रिटिस विद्वान जेनरल कनिंघम ने यह ऐसी धारणा व्यक्त की है कि मौर्य सम्राट अशोक के काल में यहाँ लगाए गए धम्म स्तंभों को 'शरणÓ कहा जाता था जो बाद में सारन कहलाने लगा और इस क्षेत्र का नाम बन गया। सारन का मुख्यालय छपरा काफी प्रसिद्ध रहा है और अक्सर इसे छपरा जिला भी कहा जाता है।भारत के प्रथम राष्टï्रपति यही के रहने वाले हैं।
पर्यटन स्थल
सोनपुर मेला
हाजीपुर के सामने सोनपुर में प्रत्येक वर्ष लगने वाला पशु मेला विश्व प्रसिद्ध है। सोनपुर एक नगर पंचायत और पूर्व मध्य रेलवे का मंडल है। इसकी प्रसिद्धि लंबे रेलवे प्लेटफार्म के कारण भी है। भागवत पुराण में वर्णित इस हरिहर क्षेत्र में गज-ग्राह की लडाई हुई थी जिसमें भगवान विष्णु ने ग्राह (घरियाल) को मुक्ति देकर गज (हाथी) को जीवनदान दिया था। उस घटना की याद में प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को गंडक स्नान तथा एक पक्ष तक चलनेवाला मेला लगता है। यहाँ बाबा हरिहरनाथ (शिव मंदिर) तथा काली मंदिर के अलावे अन्य मंदिर भी हैं। मेला के दिनों में सोनपुर एक सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक केंद्र बन जाता है।
चिरांद :
 छपरा से 11 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में डोरीगंज बाजार के निकट स्थित यह गाँव एक सारन जिले का सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है। घाघरा नदी के किनारे बने स्तूपनुमा भराव को हिंदू, बौद्ध तथा मुस्लिम प्रभाव एवं उतार-चढाव से जोड़कर देखा जाता है। भारत में यह नव पाषाण काल का पहला ज्ञात स्थल है। यहाँ हुए खुदाई से यह पता चला है कि यह स्थान नव-पाषाण काल  (2500.1345 ईसा पूर्व) तथा ताम्र युग में आबाद था। खुदाई में यहाँ से हडडियाँ, गेंहूँ की बालियाँ तथा पत्थर के औजार मिले हैं जिससे यह पता चलता है कि यहाँ बसे लोग कृषि, पशुपालन एवं आखेट में संलग्न थे।
 स्थानीय लोग चिरांद टीले को द्वापर युग में ईश्वर के परम भक्त तथा यहाँ के राजा मौर्यध्वज (मयूरध्वज) के किले का अवशेष एवं च्यवन ऋषि का आश्रम मानते हैं। 1960 के दशक में हुए खुदाई में यहाँ से बुद्ध की मूर्तियाँ एवं धम्म से जुड़ी कई चीजें मिली है जिससे चिरांद के बौद्ध धर्म से लगाव में कोई सन्देह नहीं।
मांझी : छपरा शहर से 20 किलोमीटर पश्चिम गंगा के उत्तरी किनारे पर प्राचीन किले का अवशेष है। यहाँ से प्राप्त दो मूर्तियों को स्थानीय मधेश्वर मंदिर में रखी गई है। इनमें एक मूर्ति भूमि स्पर्श मुद्रा मे भगवान बुद्ध की है जो मध्य काल में बनी मालूम पड़ती है। टीले के पूर्व बने कम ऊँचाई वाले खंडहर को स्थानीय लोग राजा की कचहरी बुलाते हैं। अबुल फजल लिखित आईना.ए.अकबरी में मांझी को एक प्राचीन शहर बताया गया है। ऐसी धारणा भी है कि इस जगह का नाम चेरों राजा माँझी मकेर के नाम पर पड़ा है।
अंबा स्थान, आमी : छपरा से 37 किलोमीटर पूर्व तथा दिघवारा से 4 किलोमीटर दूर आमी में प्राचीन अंबा स्थान है। दिघवारा का नाम यहाँ स्थित एक दीर्घ (बड़ा) द्वार के चलते पड़ा है। आमी मंदिर के पास एक बगीचे में कुँआ बना है जिसमें पानी कभी नहीं सूखता। इस कुएँ को यज्ञ कुंड माना जाता है और नवरात्र (अप्रैल और अक्टुबर) के दिनों में दूर-दूर से लोग जल अर्पण करने आते हैं।
दधेश्वरनाथ मंदिर : पारसगढ से उत्तर धोर आश्रम में पुरातात्विक महत्व के कई वस्तुएं दिखाई पड़ती है। गंडक के किनारे भगवान दधेश्वरनाथ मंदिर है जहाँ पत्थर का विशाल शिवलिंग स्थापित है।
गौतम स्थान : छपड़ा से 5 किलोमीटर पश्चिम में घाघरा के किनारे स्थित रिवीलगंज (पुराना नाम-गोदना) में गौतम स्थान है। यहाँ दर्शन शास्त्र की न्याय शाखा के प्रवर्तक गौतम ऋषि का आश्रम था। हिंदू लोगों में ऐसी आस्था है कि रामायण काल में भगवान राम ने गौतम ऋषि की शापग्रस्त पत्नी अहिल्या का उद्धार किया था। ऐसी ही मान्यता मधुबनी जिले में स्थित अहिल्यास्थान के बारे भी है।
बाबा शिलानाथ मंदिर : मढौरा से 28 किलोमीटर दूर सिल्हौरी के बारे में ऐसी मान्यता है कि शिव पुराण के बाल खंड में वर्णित नारद का मोहभंग इस स्थान पर हुआ था। प्रत्येक शिवरात्रि को बाबा शिलानाथ के मंदिर में जलार्पण करनेवाले भक्त यहाँ जमा होते हैं।
जीरादेई

कहते हैं कि प्रत्येक चमकने वाली वस्तु सोना नहीं हुआ करती। इसी तरह साधारण दिखने वाले व्यक्ति में कितना असाधारण व्यक्तित्व छिपा हैए कोई अंदाजा नहीं लगा सकता। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इस बात का जीता-जागता उदाहरण हैं।  बिहार के जिला सारन के एक गांव जीरादेई में जन्मे राजेन्द्र प्रसाद एक ऐसे व्यक्ति थे जो किसान के परिवार से आते थे और उन्होंने जीवन की हर कड़वी सच्चाई को नजदीक से देखा था। उनके पिता श्री महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता श्रीमती कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं जिनके संस्कारों में पलकर राजेन्द्र प्रसाद का बचपन बीता। इन्हीं संस्कारों का नतीजा था जो राजेन्द्र प्रसाद जी में सादगी और सहजता के गुणों का सृजन हुआ। सादगी, सरलता, सत्यता एवं कत्र्तव्यपरायणता आदि उनके जन्मजात गुण थे। चंपारन के किसानों को न्याय दिलाने में गांधीजी ने जिस कार्यशैली को अपनायाए उससे राजेन्द्र बाबू अत्यंत प्रभावित हुएण् बिहार में सत्याग्रह का नेतृत्व राजेन्द्र बाबू ने किया। उन्होंने गांधी जी का संदेश बिहार की जनता के समक्ष इस तरह से प्रस्तुत किया कि वहां की जनता उन्हें 'बिहार का गांधीÓ ही कहने लगी। आगे चलकर उनकी लोकप्रियता, सादगी और निष्टा की वजह से ही उन्हें निर्विवाद रुप से देश का प्रथम राष्ट्रपति चुना गया। गांधीजी ने एक बार कहा था। मैं जिस भारतीय प्रजातंत्र की कल्पना करता हूं, उसका अध्यक्ष कोई किसान ही होगा। और स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत के सर्वोच्च पद के लिए जनता के प्रतिनिधियों ने एकमत होकर राष्ट्रपति पद के लिए जब राजेन्द्र प्रसाद  को चुना तो उनका यह कथन भी साकार हो गया। यहां आकर आप काफी गौरणान्वित होंगे।

महाकाव्य महाभारत से जमुई का संबंध

जमुई बिहार के जमुई जिला का मुख्यालय है। यह जैनों के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है। प्राचीन समय में इस जगह को जूम्भिकग्राम और जमबुबानी के नाम से जाना जाता था। ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से यह स्थान काफी महत्वपूर्ण रहा है। सेंट थॉमस चर्च, गुरूद्वारा पक्की संगत, मिन्टो टॉवर, जैन मंदिर धर्मशाला, चन्द्रशेखर संग्रहालय और काली मंदिर आदि यहां के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से हैं। माना जाता है कि 24वें र्तीथकर भगवान महावीर ने उज्जिहवलिया नदी के तट पर स्थित जूम्भिकग्राम में दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था। इस जिले की स्थापना गुप्त, पाल और चन्देल शासकों ने की थी। जमुई का संबंध प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत से भी जोड़ा जाता है।
मुख्य आकर्षण
 सेंट थॉमस चर्च
जमुई के दक्षिण-पूर्व से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सेंट थॉमस चर्च एक कैथोलिक चर्च है। इसकी स्थापना 1950 ई. में फ्रेंच साइस एस. जे ने की थी। इस चर्च के प्रथम पादरी थॉमस वेट्टीकेड थे।
गुरूद्वारा पक्की संगत
जमुई जिले के मोगहार स्थित गुरूद्वारा पक्की संगत प्राचीन गुरूद्वारों में से है। माना जाता है कि यह वह स्थान है जहां सिक्खों के नौवें गुरू, गुरू तेग बहादुर कुछ समय के लिए ठहरें थे। गुरूद्वारे में एक कमरा है। माना जाता है कि इस कमरे में रखे हुए तकिया और कोट को गुरू जी ने प्रयोग किया था। गुरूद्वारे के समीप पर ही एक पुराना किला भी है।
मिन्टो टॉवर
जमुई जिला मुख्यालय के पूर्व से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गिद्धौर में मिन्टो टॉवर है। यह टॉवर बिहार के प्रमुख पयर्टन स्थलों में से है। मिन्टो टॉवर का निर्माण महाराजा रामेश्वर प्रसाद सिंह ने करवाया था। यह टॉवर लॉर्ड मिन्टो, भारत के गर्वनर जर्नल और वाइसराय की याद में बनवाया गया थाए जो 10 फरवरी 1960 ई. में यहां घूमने के लिए आए थे। काफी संख्या में पर्यटक यहां आना पसंद करते है। मिन्टो टॉवर के समीप ही एक मंदिर भी है।
जैन मंदिर धर्मशाला
जमुई के पश्चिम से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सिंकदरा में जैन मंदिर और एक धर्मशाला स्थित है। इस धर्मशाला में कुल 65 कमरें है। मंदिर स्थित यह धर्मशाल जैन भक्तों को रहने की सुविधा उपलब्ध कराती है। यह धर्मशाल मंदिर के भीतर स्थित है। जैन मंदिर भगवान महावीर को समर्पित है। काफी संख्या में लोग मंदिर में आते हैं। इसके अलावा यह स्थान भगवान महावीर के जन्म स्थान के रूप में भी जाना जाता है।
चन्द्रशेखर संग्रहालय
चन्द्रशेखर संग्रहालय मल्टी-परपस म्यूजियम है। इसकी स्थापना 1985 ईण् में हुई थी। जमुई स्थित चन्द्रशेखर संग्रहालय की स्थापना प्रोफेसर डां. श्यामनंदन प्रसाद ने की थी। पुरातात्विक वस्तुएं, टेरीकोटा सील और प्राचीन चट्टान आदि इस संग्रहालय में देखी जा सकती है। इसके अतिरिक्तए संग्रहालय में भगवान विष्णुए भगवान सूर्या, देवी उमा और दुर्गा की अनेक प्रतिमाएं देखी जा सकती है। यह संग्रहालय चन्द्रशेखर सिंह संग्रहालय के नाम से प्रसिद्ध है। यह संग्रहालय प्रत्येक दिन खुला रहता है। केवल सोमवार को अवकाश रहता है। खुलने का समय : सुबह 10 बजे से शाम 4.30 बजे तक
 काकनकाकन
जुमई के उत्तर से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह जगह धार्मिक केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध है। माना जाता है कि जैनों के नौवें तीर्थंकर सुविधिनाथ का जन्म इसी स्थान पर हुआ था। प्रत्येक वर्ष हजारों की संख्या में भक्त यहां आते हैं। इसके अलावा यहां लोगों के लिए रहने की सुविधा भी प्रदान की गई है। प्रसिद्ध जैन मंदिर कुमार ग्राम प्राचीन देवी मंदिर के लिए जाना जाता है। माना जाता है कि इंदापी जिसे इंद्रप्रस्थ के नाम से भी जाना जाता है, वह भी यहां घूमने के लिए आए थे।
काली मंदिरकाली मंदिर जुमई जिले के मालयपुर गांव स्थित है। यह मंदिर देवी काली को समर्पित है। प्रत्येक वर्ष इस जगह पर बहुत ही प्रसिद्ध मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले को काली मेला के नाम से जाना जाता है।


सिमुलतला 
जिला मुख्यालय से लगभग 52 किलो मीटर दूरी पे  मिनी शिमला के नाम से विख्यात सिमुलतला सुंदर व मनोरम छठाओं से घिरा एक सुन्दर स्थल है। यहां ठंड के दिनों में पर्यटक सिमुलतला की हरे भरे बाग बगीचे व सुन्दर-सुन्दर झरने व पहाड़ों का दीदार करते हैं। यहां की जलवायु की प्रशंसा अपने संपूर्ण भ्रमण
पुस्तक में स्वामी विवेकानंद ने खूद की है। और लिखा है सर्वोत्तम जलवायु सिमुलतला की है। स्वामी विवेकानंद  जी दो दफा सिमुलतला का भ्रमण किये  है। वर्तमान समय में पश्चिम बंगाल के कई नामी गिरामी लोगों का भव्य मकान सिमुलतला की पर्यटक व्यवसाय को जीवित करता है। पर्यटकों के सिमुलतला में आने से कई बेरोजगारों को इससे जुड़ी रोजगार मिलता है
पंचपहारी
 जिले के सोनो प्रखंड से 3 किलो मीटर की दुरी पे स्तिथ  है। यह जगह छोटे-बड़े पहाड़ो से पूरा घिरा हुआ है। यहाँ का मुख्य आकर्षण बेंगा पहाड़ हे जो की मेढक की तरह दीखता है इस पहाड़ के ऊपर भगवन शिव जी का एक मंदिर भी है भगवन शिव के अलावा माता दुर्गा, हनुमान जी का भी मंदिर है। यहाँ पे लोग नया साल एमकर संक्रांति के दिन हजारों की संख्या में जमुई जिला और राज्य के दुसरो जिलों के भी लोग घुमने आते है। यहाँ के लोग अपने घर आये हुए मेहमानों को इस प्राकृतिक स्थल का दर्शन कराना नहीं भूलते  है
आवागमन
वायु मार्ग
यहां का सबसे निकटतम हवाई अड्डा पटना स्थित जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट, पटना है। पटना से जमुई 161 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके अतिरिक्त गया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भी है। गया से जमुई 136 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
रेल मार्ग
जमुई रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से पहुंचा जा सकता है। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन जमुई जंक्शन है।
सड़क मार्गभारत के कई प्रमुख शहरों से सड़कमार्ग द्वारा जमुई आसानी से पहुंचा जा सकता है।

बक्सर युद्ध का गवाह बक्सर

 गंगा के किनारे बसा बक्सर है  इसीलिए गंगा यहां के लोगों के जीवन में हर तरह से रची-बसी है। गंगा इस इलाक़े की जीवनदायिनी है। बक्सर युद्ध के लिए प्रसिद्ध यह जगह बिहार राज्य का प्रमुख जिला है। इसका जिला मुख्यालय बक्सर शहर है। राम रेखा घाट, ब्रह्मपुर, अहिरौली, चौसा और पलासी आदि यहां के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से है। बक्सर गंगा नदी के तट पर स्थित है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। मीर कासिम  ने बंगाल को ब्रिटिशों के हाथ से छीन दुबारा यहां पर राज किया था। 1764 ई. में उन्होंने मुगल शासक शाह आलम द्वितीय और अवध के नवाब शुजा-उद-दौला की सहायता की। 23 अक्टूबर 1764 में हुए युद्ध में मीर कासिम और उनकी सेना को ब्रिटिश मेजर हैक्टर मुनरो ने हरा दिया। मेजर हैक्टर ने 857 यूरोपियन सैनिकों और 6,213 सिपाहियों के साथ मीर कासिम पर हमला किया था। ऐतिहासिक महत्व होने के साथ-साथ यह स्थान हिन्दूओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से भी है। ऋषि विश्वामित्र ने इसी स्थान पर यज्ञ का संचालन किया था। उन्होंने भगवान राम को उनके बाल्य जीवन में अयोध्या से, राक्षसों से यज्ञ को बचाने के लिए यहां लाया था।
क्या देखें                                            
राम रेखा घाट

 पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान रामचन्द्र और लक्ष्मण ने अपने गुरू ऋषि विश्वामित्र के साथ जनकपुर मार्ग से होते हुए गंगा नदी पार की थी। वह तीनों सीता स्वयंवर के लिए जनकपुर जा रहे थे। इसी कारण यह स्थान धार्मिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रत्येक वर्ष 14 जनवरी को मकर संक्रांति के अवसर पर यहां बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले को किचहारी मेला के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन करीबन 50,000 से भी अधिक लोग गंगा नदी में स्नान करते है जो कि रामरेखा घाट के नाम से प्रसिद्ध है। गंगा में स्नान करने का यह कार्यक्रम लगातार तीन दिनों तक चलता है।
खरिका
 खरिका गांव राजपुर के दक्षिण.पश्चिम से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह गांव 1857 ई. में बाबू कुंवर सिंह और ब्रिटिश सैनिकों के बीच हुए युद्ध की घटना के बाद सामने आया।
ब्रह्मपुर
 बक्सर स्थित यह गांव विशेष रूप से प्राचीन ब्रह्मेश्वर मंदिर के लिए जाना जाता है। यह मंदिर मोहम्मद गजनवी के समय से यहां स्थित है।मुगल शासक अकबर के समय में राजा मान सिंह ने इस मंदिर का पुन: निर्माण करवाया था।
अहिरौली
बक्सर के उत्तर-पूर्व से लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर अहिरौली गांव है। यह गांव देवी अहिल्या के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। पौराणिक कथा के अनुसार इसका सम्बध ईसा पूर्व काल से है। कहा जाता है कि गौतम ऋषि ने अपनी पत्नी को शाप दिया था जिस कारण वह पत्थर की बन गई थी। और वह पत्थर से पुन: स्त्री तभी बन सकती थी जब भगवान श्री राम इस जगह पर आए।
चौसा
यह जगह 1539 ई. में हुमायूं और शेरशाह के बीच हुए युद्ध के लिए प्रसिद्ध है। शेरशाह जब हुमायूं का पीछा कर रहा था, तब हुमायूं ने शेरशाह से बचने के लिए एक भिश्ती की सहायता ली थी। जिसने उसे गंगा नदी पार कराया था। भिश्ती की सेवा से प्रसन्न होकर हुमायूं ने उसे एक दिन के लिए अपना साम्राज्य सौप दिया था।
पलासी
 यह जगह सन् 1757 ई. में ब्रिटिश सैनिकों और बंगाल के नवाब मीरकासिम के बीच हुए युद्ध के लिए जानी जाती है। यह युद्ध बक्सर शहर के पूर्व से छ: किलोमीटर की दूरी पर स्थित काथीकौली में हुआ था। वर्तमान समय में बक्सर शहर बक्सर जिले का मुख्यालय है।

हवाओं में मालभोग केले की खुश्बू हाजीपुर शहरिया

मालभोग, चीनिया और अलपान केले तथा आम की मालदह, सीपिया, कृष्णभोग, लड़ुई मिठुआ, दसहरी किस्मों के लिए हाजीपुर की अच्छी ख्याति है किसी और की नहीं हाजीपुर शहरिया का है। यहां के हवाओं में मालभोग केले की खुश्बू बिखरी हुई।
गंगा और गंडक नदी के तट पर बसे इस शहर का धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व है। हिंदू पुराणों में गज (हाथी) और ग्राह (मगर) की लड़ाई में प्रभु विष्णु के स्वयं यहां आकर गज को बचाने और ग्राह को शापमुक्त करने का वर्णन है। कोनहारा घाट के पास कार्तिक पूर्णिमा को यहां प्रतिवर्ष मेला लगता है। ईसा पूर्व छठी सदी के उत्तरी और मध्य भारत में विकसित हुए 16 महाजनपदों में वैशाली का स्थान अति महत्वपूर्ण था। नेपाल की तराई से गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जिसंघ द्वारा गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरूआत की गई थी। वज्जिकुल में जन्मे भगवान महावीर की जन्म स्थली शहर से 35 किलोमीटर दूर कुंडलपुर (वैशाली) में है। महात्मा बुद्ध का इस धरती पर तीन बार आगमन हुआ था। भगवान बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद की पवित्र अस्थियां इस शहर (पुराना नाम. उच्चकला) में जमींदोज है।
हर्षवर्धन के शासन के बाद यहाँ कुछ समय तक स्थानीय क्षत्रपों का शासन रहा तथा आठवीं सदी के बाद यहाँ बंगाल के पाल वंश के शासकों का शासन शुरु हुआ। तिरहुत पर लगभग 11 वीं सदी मे चेदि वंश का भी कुछ समय शासन रहा। तुर्क.अफगान काल में 1211 से 1226 बीच गयासुद्दीन एवाज़ तिरहुत का पहला मुसलमान शासक बना। 1323 में तुग़लक वंश के शासक गयासुद्दीन तुग़लक का राज आया। इसी दौरान बंगाल के एक शासक हाजी इलियास शाह ने 1345 ई से 1358 ई तक यहाँ शासन किया। चौदहवीं सदी के अंत में तिरहुत समेत पूरे उत्तरी बिहार का नियंत्रण जौनपुर के राजाओं के हाथ में चला गया जो तबतक जारी रहा जबतक दिल्ली सल्तनत के सिकन्दर लोधी ने जौनपुर के शासकों को हराकर अपना शासन स्थापित नहीं किया।
बाबर ने अपने बंगाल अभियान के दौरान गंडक तट पर एक किला होने का जिक्र श्बाबरनामाश् में किया है। 1572 ई. से 1542 ई. के दौरान बंगाल विद्रोह को कुचलने के क्रम में अकबर की सेना ने दो बार हाजीपुर किले पर घेरा डाला था। 18 वीं सदी के दौरान अफगानों द्वारा शहर पर कब्जा किया गया। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय हाजीपुर के शहीदों की अग्रणी भूमिका रही है।

दर्शनीय स्थल
महात्मा गाँधी सेतु

5 किलोमीटर 575 मीटर लंबी प्रबलित कंक्रीट से गंगा नदी पर बना महात्मा गाँधी सेतु 1982 में बनकर तैयार हुआ और भारत की तत्कालिन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा राष्ट्र को समर्पित किया गया था। लगभग 121 मीटर लंबे स्पैन का प्रत्येक पाया बॉक्स.गर्डर किस्म का प्रीटेंशन संरचना है जो देखने में अद्भुत है। 46 पाये वाले इस पुल से गंगा को पार करने पर केले की खेती का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। इस पुल से पटना महानगर के विभिन्न घाटों तथा लैंडमार्क का अवलोकन किया जा सकता है। महात्मा गांधी सेतु, हाजीपुर-विश्व का सबसे लंबा पुल ;5ए575 मीण्द्ध हाजीपुर को पटना से जोड़ता हुआ गंगा नदी पर बना है।महात्मा गांधी सेतु, हाजीपुर . विश्व का सबसे लंबा पुल ;5ए575 मीण्द्ध
हाजीपुर को पटना से जोड़ता हुआ गंगा नदी पर बना है।

कोनहारा घाट

गंगा और गंडक के पवित्र संगम स्थल की महिमा भागवत पुराण में वर्णित है। गज.ग्राह की लडाई में स्वयं श्रीहरि विष्णु ने यहाँ आकर अपने भक्त गजराज को जीवनदान और शापग्रस्त ग्राह को मुक्ति दी थी। इस संग्राम में कौन हाराघ्.ऐसी चर्चा सुनते सुनाते इस स्थान का नाम श्कोनहाराश् पड़ गया। बनारस के प्रसिद्ध मनिकर्णिका घाट की तरह यहाँ भी श्मशान की अग्नि हमेशा प्रज्वलित रह्ती है। ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर शरीर की अंत्येष्टि क्रिया मोक्षप्रदायनी है।
नेपाली छावनी मंदिर
मातबर सिंह थापा द्वारा हाजीपुर में निर्मित शिव मंदिर

एक नेपाली सेनाधिकारी मातबर सिंह थापा द्वारा 18 वीं सदी में पैगोडा शैली में निर्मित शिवमंदिर कोनहारा घाट के समीप है। यह अद्वितीय मंदिर नेपाली वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। काष्ट फलकों पर बने प्रणय दृश्य का अधिकांश भाग अब नष्टप्राय है या चोरी हो गया है। कला प्रेमियों के अलावे शिव भक्तों के बीच इस मंदिर की बड़ी प्रतिष्ठा है। काष्ठ पर उत्कीर्ण मिथुन के भित्ति चित्र के लिए यह विश्व का इकलौता पुरातात्विक धरोहर है। दुर्भाग्यवशए देखरेख एवं रखरखाव के अभाव में अद्भुत कलाकृतियों को दीमक अपना ग्रास बना रहा है।
रामचौरा मंदिर
नगर के दक्षिणी भाग में स्तूपनुमा अवशेष पर बना रामचौड़ा मंदिर हिंदू आस्था का महत्वपूर्ण केंद्र है। ?सी मान्यता है कि अयोध्या से जनकपुर जाने के क्रम में भगवान श्रीराम ने यहाँ विश्राम किया था। उनके चरण चिö प्रतीक रुप में यहाँ मौजूद है। पुरातत्वविदों का मानना है कि बुद्धप्रिय आनंद की अस्थि को रखे गए स्तूप के अवशेष स्थल पर ही इस मंदिर का निर्माण किया गया था।
पतालेश्वर स्थान
नगर के रक्षक भगवान शिव पतालेश्वर नाम से प्रसिद्ध हैं। पतालेश्वर स्थान नाम से मशहूर स्थानीय हिंदुओं का सबसे महत्वपूर्ण पूजास्थल शहर के दक्षिण में रामच?रा के पास रामभद्र में स्थित है। 1895 में धरती से शिवलिंग मिलने के बाद यहां मन्दिर निर्माण हुआ। भीड भडे माह?ल से दूर बने इस शिव मन्दिर का स्थापत्य साधारण लेकिन आकर्षक है। लगभग 22800 वर्गफ़ीट में बने इस मन्दिर का वर्तमान स्वरूप 1932.34 के बीच अस्तित्व में आया। मन्दिर परिसर में बने विवाह मंडप में सालोंभर विवाह.संस्कार संपन्न कराये जाते हैं जिसकी आधिकारिक मान्यता भी है।
अकबर काल में बनी हाजी मस्जिद
शेख हाजी इलियास द्वारा निर्मित किले के अवशेष क्षेत्र के भीतर बनी जामी मस्जिदए हाजीपुर में मुगलकाल की महत्वपूर्ण इमारत है। शहजादपुर अन्दरकिला में जी? ए? इंटर स्कूल के पास पत्थर की बनी तीन गुंबदों वाली यह आकर्षक मस्जिद आकार में 25ऽ8 मीटर लंबी और 10ऽ2 मीटर चौड़ी है। मस्जिद के प्रवेश पर लगे प्रस्तर में इसे अकबर काल में मख्सूस शाह एवं सईद शाह द्वारा 1587 ई? ;1005 हिजरीद्ध में निर्मित बताया गया है। मस्जिद के पास जिलाधिकारी आवास के निकट हाजी इलियास तथा हाजी हरमेन की मजार बनी है।
मामू.भाँजा की मजाऱ
मुगलशासक औरंगजेब के मामा शाईस्ता खान ने हजऱत मोहीनुद्दीन उर्फ दमारिया साहेब और कमालुद्दीन साहेब की मजाऱ हाजीपुर से 5 किलोमीटर पूरब मीनापुरए जढुआ में बनवायी थी। सूफी संतो की यह मजार स्थानीय लोगों में मामू.भगिना या मामा.भाँजा की मजाऱ के नाम से प्रसिद्ध है। यहीं बाबा फरीद के शिष्य ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के मजार की अनुकृति भी बनी है। सालाना उर्स के मौके पर इलाके के मुसलमानों का यहाँ भाड़ी जमावड़ा होता है। इसके पास ही मुगल शासक शाह आलम ने लगभग 180 वर्ष पूर्व करबला का निर्माण कराया था जो मुसलमानों के लिए पवित्र स्थल है।
गाँधी आश्रम
हाजीपुर रेलवे स्टेशन के समीप स्थित गाँधी आश्रम महात्मा गाँधी के तीन बार हाजीपुर पधारने के दौरान उनसे जुड़ी स्मृतियों का स्थल है। एक पुस्तकालय के अतिरिक्त गाँधीजी के चरखा प्रेम और खादी जीवन को बढावा देने हेतु ख्खादी और ग्रामोद्योग आयोग, द्वारा संचालित परिसर है। स्थानीय विक्रय केंद्र पर खादी वस्त्र, मधु, कच्ची घानी सरसों तेल आदि उपलब्ध है। हाजीपुर औद्योगिक क्षेत्र में खादी और ग्रामोद्योग का केन्द्रीय पूनी संयंत्र भी है जहाँ खादी वस्त्र तैयार किए जाते हैं।
हरिहरक्षेत्र मेला
गज.ग्राह घटना की याद में कोनहारा घाट के सामने सोनपुर में हरिहरक्षेत्र मेला लगता है। स्थानीय लोगों में श्छत्तर मेलाश् के नाम से मशहूर है। प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को पवित्र गंडक.स्नान से शुरु होनेवाले मेले का आयोजन पक्ष भर चलता है। सोनपुर मेला की प्रसिद्धि एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के रुप में है। हाथी.घोड़े से लेकर रंग.बिरंगे पक्षी तक मेले में खरीदे.बेचे जाते हैं। आनेवाले जाड़े के लिए गर्म कंबल से लेकर लकड़ी के फर्नीचर तक स्थानीय लोगों की जरुरतों को पुरा करती हैं। तमाशेए लोकनृत्य] लोककलाएँ और प्रदर्शनियाँ देशी.विदेशी पर्यटकों की कौतूहल को शांत करती हैं।

Thursday 27 December 2012

बिहार भ्रमण-2 : शिवहर तिरहुती और मैथिल संस्कृति की गंध



शिवहर तिरहुती और मैथिल संस्कृति की गंध है। शादी-विवाह या अन्य महत्वपूर्ण आयोजनों पर वैदेही सीता और भगवान श्रीराम के विवाह के गीत यहाँ बड़े ही रसपूर्ण अंदाज में गाए जाते हैं। जट-जटिन तथा झिझिया शिवहर जिले का महत्वपूर्ण लोकनृत्य है। जट.जटिन नृत्य राजस्थान के झूमर के समान है। झिझिया में औरतें अपने सिर पर घड़ा रखकर नाचती हैं और अक्सर नवरात्र के दिनों में खेला जाता है। छठ, होली, दिवाली, दुर्गापूजा, मुर्हम, ईद जैसे पर्व हिंदू और मुस्लिम के द्वारा मिलजुलकर मनाए जाते हैं। देवकुली बौद्धायान-सार और शुकेश्वर स्थान आदि यहां के प्रमुख स्थलों में से शिवहर बिहार राज्य का एक जिला है। देवकुली, बौद्धायानसार और शुकेश्वर स्थान आदि यहां के प्रमुख स्थलों में से है। इसका जिला मुख्यालय शिवहर शहर है। पूर्व समय में यह जिला सीतामढ़ी जिले का एक हिस्सा था। लेकिन 1994 ई. में इसे अलग जिले के रूप में घोषित कर दिया गया। इसे जिले को शिहोर के नाम से भी जाना जाता है।  शिवहर पहले रामायण काल में मिथिला फिर महाजनपद काल में वैशाली के गौरवपूर्ण बज्जिसंघ का हिस्सा रहा।
 पर्यटक स्थल
देवकुली : मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं भुवनेश्वर नाथ
जिला मुख्यालय से 5 किलो मीटर पूरब देकुली धाम स्थित बाबा भूवनेश्वर नाथ मंदिर जिले की पौराणिक धरोहर के साथ जिले व आस-पास के लोगों के आस्था का केंद्र हैं। द्वापर काल में निर्मित इस मंदिर में शिवहर के पड़ोसी जिलों के साथ-साथ नेपाल के लोग पूजा-अर्चना व जलाभिषेक करने आते है। मंदिर के धार्मिक महत्व के बारे में कहा जाता है कि मंदिर एक ही पत्थर को तराश कर बनाया गया है। इसमें स्थापित शिवलिंग भगवान परशुराम की तपस्या से प्रकट हुआ जो ओद काल से बाबा भुवनेश्वर नाथ के नाम से ही प्रचलित है। शिवलिंग के अरघा के नीचे अनंत गहराई है, जिसे मापा नही जा सकता। वही मंदिर के गुंबज के नीचे प्रस्तर में श्रीयंत्र स्थापित है। मान्यता है कि जो कोई भी जलाभिषेक के बाद श्री यंत्र का दर्शन करता है, उसकी सारी मनोकामना पूर्ण हो जाती है। जानकारों का कहना है कि 1956 में प्रकाशित अंगरेजी गजट में इस धाम की चर्चा करते हुए उल्लेख किया गया था कि नेपाल के पशुपति नाथ एवं भारत के हरिहर क्षेत्र मंदिर के मध्य में देकुली बाबा भुवनेश्वर नाथ मंदिर स्थित है। कलकत्ता के हाई कोर्ट के एक अहम फैसला में भी अति प्राचीन बाबा भुवनेश्वर मंदिर देकुली धाम उल्लिखित है। ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यकाल में चैकीदारी रसीद पर भी इस मंदिर का उल्लेख मिलता है। ग्रामीण बताते है कि मंदिर के पश्चिम एक तालाब है जिसकी खुदाई 1962 ई में चैतन्य अवतार जिले के छतौनी गांव निवासी महान संत प्रेमभिक्षु जी महाराज ने करायी थी। जिसमें द्वापर काल की दुर्लभ पत्थर व धातु की मूर्तियां प्राप्त हुई थी। जिसे मंदिर प्रांगण के मुख्य द्वार के दाहिने तरफ अति प्राचीन मौल श्री वृक्ष के पास स्थापित की गयी है। जमीन के सामान्य स्तर से करीब 15 फीट उपर एक टिला पर अवस्थित उक्त शिव मंदिर के उत्तर-पश्चिम कोने में माता पार्वती, दक्षिण में भैरव नाथ एवं पूरब-दक्षिण कोण में हनुमान जी का मंदिर है।
मंदिर से पूरब करीब 12 फीट नीचे खुदाई करने पर ग्रेनाइट पत्थर से बना भग्नावशेष प्राप्त हुआ था, जिसके अग्रवाहु की लंबाई करीब 18 इंच से अधिक थी। पुरातात्विक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण इस मंदिर के खुदाई पर तत्काल रोक लगी है। इसके पौराणिक एवं धार्मिक महत्व के बारे में कहा जाता है कि भगवती सीता के साथ पाणि ग्रहण संस्कार के उपरांत जिस स्थान पर राम को परशुराम के कोप का शिकार होना पड़ा वह जगह कोपगढ़ गांव के नाम से जाना जाने लगा, जहां परशुराम का मोहभंग हुआ वहां मोहारी गांव वसा हुआ है। राम एवं परशुराम के बीच आपसी प्रतीती के पश्चात परशुराम ने राम को भुवनेश्वर नाथ अर्थात शिव के दर्शन कराये जिस कारण शिव एवं हरि का यह मिलन क्षेत्र शिवहर के नाम से जाना जाने लगा। हालांकि शिव का घर से भी शिवहर नाम प्रचलित होने की बात कही जाती है। वही द्वापर काल में कुलदेव को द्रोपदी द्वारा संपूजित किये जाने के कारण इस जगह का नाम देकुली पड़ा। हालांकि इस बारे में अन्य कई काथाएं प्रचलित है। धाम से सटे उत्तर में युधिष्ठिर के ठहरने के उपरांत 61 तालाब खुदवाये गये थे जो विभिन्न नामों से प्रचलित था, जो बागमती नदी के कटाव में अस्तित्व विहीन हो गया।
बौद्धायान-सार : यह एक धार्मिक स्थल है। कहा जाता है कि महर्षि बौद्ध ने इसी स्थान पर कई महाकाव्य लिखे थे। प्रसिद्ध व्याकराणिक, पाणिनी महर्षि बौद्ध के शिष्यों में से एक थे। प्रसिद्ध संत देवराह बाबा ने लगभग 18 वर्ष पूर्व यहां पर बौद्धायन मंदिर की स्थापना की थी।
शुकेश्वर स्थान : सीतामढ़ी शहर के उत्तर.पश्चिम से लगभग 26 किलोमीटर की दूरी पर शुकेश्?वर स्थान स्थित है। इस जगह पर महान् संत शुकदेव मुनि पूजा किया करते थे। यहां पर भगवान शिव का एक विशाल और प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर को शुकेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। प्रसिद्ध संत शुकदेव मुनि के नाम पर ही इस मंदिर का नाम रखा गया था। प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि के अवसर पर यहां मेले का आयोजन किया जाता है। काफी संख्या में लोग इस मेले में सम्मिलित होते हैं।
बरगद का वृक्ष: पुरनहिया प्रखंड के गांव बसंत जगजीवन स्थित एक अति प्राचीन एवं विशाल बरगद का वृक्ष है जो अनुमानत: तीन-चार एकड़ भूमि क्षेत्र में फैला हुआ है। प्रतिवर्ष चारों तरफ तेजी से पसरती एव फैलती हुई इनकी जडों को अगल-बगल के किसानों द्वारा काट दिया जाता है ताकि बरगद के भावी कब्जे से वे अपने खेतों को बचा सके। मूल तना के अलावे इस वृक्ष की लगभग सौ और भी सहायक तना और जडें हैं जो हाथी-घोड़ों जैसी आकृति बनाते हुए एक प्रकार का भ्रम पैदा करते हैं। खासकर बच्चों के लिए यह एक कौतूहलपूर्ण दृश्य एवं क्रीड़ा स्थल है। ऐसी मान्यता है कि मूल तना के जड़ की खोह में नागदेवी एवं नागदेवता का निवास है प्रतिवर्ष नागपंचमी के दिन यहाँ एक मेले जैसा दृश्य होता है। दूर-दूर के गाँवों से लोग यहाँ नागदेवी एवं नागदेवता की पूजा अर्चना एवं बरगद बाबा के दर्शन करने आते हैं।
 गढ़ी माई का मंदिर : वैसे तो आपने अनेक मंदिर व मस्जिद देखा होगा जहां पूजा व इबादत होती है पर एक जगह ऐसी है जहां एक ओर अल्लाह हो अकबर तो दूसरी ओर गढ़ी माई का जयकारा एक साथ गूंजता है। इसके साथ ही टूट जाती है धर्म-मजहब की दीवार और निकल पड़ती है हम राम और रहीम एक हैं का संदेश। जी हां हिन्दू और मुस्लिम एकता की मिसाल है। शिवहर जिला मुख्यालय वार्ड नं. 14 में अवस्थित गढ़ी माई का मंदिर और मस्जिद। विशाल मस्जिद के मुख्य द्वार पर दाहिने ओर गढ़ी माई का मंदिर है, जहां आस्था व विश्वास का साक्षात दर्शन होता है। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है कि सच्चे दिल से मांगी गई मन्नतें अवश्य पूरी होती है। वैसे तो यहां अन्य दिन भी भीड़ लगी रहती है पर दशहरा में विशेष पूजा-अर्चना व बलि की प्रथा है। इस मंदिर-मस्जिद द्वय का इतिहास पुराना है पर जानकारों की मानें तो गढ़ी माई की स्थापना आजादी से पूर्व ही राज दरबारों द्वारा की गई थी, जहां दशहरा व अन्य त्योहारों पर पूजा-अर्चना के साथ बलि दी जाती थी। इसी दौरान कहीं से घूमते फिरते एक फकीर शिवहर पहुंचा व गढ़ी माई के स्थान के निकट ही रहने लगा। वह तंत्र-मंत्र का जानकार था। वह लोगो को झाड़-फूंक करने लगा। कई लोगों को ठीक होने पर उसे ख्याति प्राप्त हो गई। कुछ दिन बीतने के बाद वह फकीर राज दरबार पहुुंच गढ़ी माई के निकट मस्जिद बनाने की इच्छा जताई तो राजा ने फकीर की बातों को स्वीकार करते हुए मस्जिद बनाने में सहयोग किया। मस्जिद बनने के बाद उत्तर-पश्चिम कोने पर मिट्टी से बनी पिण्डी के उपर लाल चुनरी लगाकर पूजा की जाने लगी बाद में कुछ शरारती तत्वों ने उक्त माई की पिण्डी को उखाड़ फेंक दियाए जिसको लेकर काफी बबाल मचा, तत्पश्चात शिवहर व राजा परसौनी की मध्यस्थता व स्थानीय लोगों के सहयोग से पुन: मस्जिद के मुख्य द्वार के समीप पिण्डी स्थापित किया गया। वर्ष 2005 के सितम्बर माह में दोनों समुदाय की सहमति से गढ़ी माई के मंदिर का रूप दिया गया जो आज भी सुशोभित है। लोग पूजा-अर्चना कर धन्य-धान्य हो रहे हैं। ज्ञात हो कि वर्ष 1050 में मस्जिद परिसर में मदरसा इस्लामिया संचालित किया गया जो 1958 में उर्दू बोर्ड के हवाले हो गया। जहां फिलहाल मौलवी व आलिम तक की पढ़ाई होती है। यह मंदिर और मस्जिद आपसी भाईचारा एवं एकता का मिसाल है।
कैसे पहुंचे
वायु मार्ग : यहां का सबसे निकटतम हवाई अड्डा पटना स्थित जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। पटना से शिवहर 174 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके अलावा गया स्थित गया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भी है। गया से यह जिला लगभग 244 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
रेल मार्ग : सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन शिवहर जंक्शन है। रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से यहां पहुंचा जा सकता है।
सड़क मार्ग : भारत के कई प्रमुख शहरों से शिवहर सड़कमार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है।

बिहार भ्रमण-1 : मंडन मिश्र की भूमि सहरसा

                   सहरसा : जिसका उल्लेख शिव पुराण में भी मिलता है


सहरसा भारत के बिहार प्रान्त का एक जिला एवं शहर है। जिला के रूप में सहरसा की स्थापना 1 अप्रैल 1954 को हुआ जबकि 2 अक्टुबर 1972 से यह कोशी प्रमण्डल का मुख्यालय है । नेपाल से आने वाली कोशी नदी के मैदानों में फ़ैला हुआ कोशी प्रमण्डल इतिहास के पन्नों में तो एक समृद्ध प्रदेश माना जाता रहा है किन्तु वर्तमान में यह अति पिछड़े क्षेत्रों में आता है । यहाँ कन्दाहा में सूर्य मंदिर एवं प्रसिद्ध माँ तारा स्थान महिषी ग्राम में स्थित है । प्राचीन काल से यह स्थान आदि शंकराचार्य तथा यहाँ के प्रसिद्ध विद्वान मंडन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ के लिए भी विख्यात रहा है। आरंभ में सहरसा क्षेत्र अंगुत्तरप कहलाता था और उत्तर बिहार प्रसिद्ध वैशाली महाजनपद के सीमा पर स्थित था। अंग देश के शक्तिशाली होने पर यह इसके रहा लेकिन जल्द ही मगध साम्राज्य के विस्तारवाद का शिकार हो गया। बनमनखी.फारबिसगंज रोड पर सिकलीगढ में एवं किशनगंज पुलिस स्टेशन के पास मौर्य स्तंभ मिलने से यह बात प्रमाणित है। 1956 में प्रसिद्ध इतिहासकार आर के चौधुरी के निर्देशन में हो रहे खुदाई के दौरान गोढोघाट एवं पटौहा में आहत सिक्के मिले हैं। मगध साम्राज्य में बिम्बिसार के समय बौद्ध धर्म के राजधर्म बनने पर यहाँ भी बौद्ध प्रभाव बढने लगा। जिले का बिराटपुर, बुधियागढी, बुधनाघाट, पितहाही और मठाई जैसी जगहों पर बौद्ध चिह्न मिले हैं। 7वीं सदी में जब आदि शंकराचार्य भारत भ्रमण पर निकलकर शास्त्रार्थ द्वारा हिंदू धर्म की पुनस्र्थापना करने लगे तब उनका आगमन सहरसा जिले के महिषीग्राम में हुआ। कहा जाता है जब आदि शंकराचार्य ने यहाँ के प्रसिद्ध विद्वान मंडन मिश्र को हरा दिया तब उनकी पत्नीए जो कि एक विदुषी थीं, ने उन्हे चुनौती दी तथा शंकराचार्य को पराजित कर दिया।
कोशी नदी के तट पर बसा सहरसा बिहार का एक प्रमुख पर्यटक स्थल है। तारा स्थान, चंडी स्थान, मंडन भारती स्थान, सूर्य मंदिर, लक्ष्मीनाथ गोसाईं स्थल, कारु खिरहारी मंदिर तथा मत्स्यगंधा यहां के प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। यह एक प्राचीन स्थल है। जिसका उल्लेख शिव पुराण में भी मिलता है। पालों के शासनकाल में यह प्रशासनिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता था।
दर्शनीय स्थल
मंडन भारती स्थान : यह स्थान महर्षि गांव में स्थित है। कहा जाता है कि इसी जगह पर जगतगुरु शंकराचार्य और यहां के स्थानीय निवासी मंडन मिश्र के बीच प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ था। इस शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र की पत्नी भारती न्यायधीश थीं। भारती एक विदूषी महिला थीं। इस शास्त्रार्थ में शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को परास्त कर दिया था। मंडन मिश्र के हारने के बाद भारती ने शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया और शंकराचार्य को इस शास्त्रार्थ में हरा दिया।   महिषी की भूमि सदियों से सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विरासत के लिये प्रसिद्ध रही है।  एक किंवदंती यह भी है कि आठवीं-नौवीं सदी में जगतगुरु शंकराचार्य अद्वैतवेदांत पर मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ के लिए महिषी आए थे। इस शास्त्रार्थ को लेकर दो लोक-कथाएं प्रचलित हैं। एक तो यह कि इस शास्त्रार्थ में शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को जब पराजित कर दिया तो उनकी पत्नी भारती ने शंकराचार्य शास्त्रार्थ की चुनौती दी और पराजित किया। दूसरी यह कि अद्वैत वेदांत पर शास्त्रार्थ के लिए शंकराचार्य के महिषी पहुंचते ही भारती ने पहले उनसे ही शास्त्रार्थ कर लेने की चुनौती दी और पराजित किया।
तारा स्थान : यह स्थान सहरसा से 16 किलोमीटर दूर पश्चिम में महर्षि गांव में स्थित है। यहां भगवती तारा एक प्राचीन मंदिर है। मंदिर में भगवती तारा की मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि यह बहुत प्राचीन है। भक्तों को इस मूर्ति के नजदीक जाने नहीं दिया जाता है। भक्त दूर से ही इस मूर्ति के दर्शन कर सकते हैं। भगवती तारा की मूर्ति के दूसरी ओर दो अन्य देवियों की छोटी मूर्तियां स्थापित है। स्थानीय लोग इन मूर्तियों की एकजाता और सरस्वती के रूप में पूजा करते हैं।
चंडी स्थान : सहरसा जिले के सोनबरसा प्रखंड में स्थित विराटपुर गांव देवी चंडी के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। इस गांव का संबंध महाभारत काल के प्रसिद्ध राजा विराट से जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि पांडवों ने अपने अज्ञातवास के 12 वर्ष इसी गांव में व्यतीत किया थे। यह मंदिर तांत्रिक संप्रदाय से संबंधित है। महर्षि गांव में स्थित तारा मंदिर तथा धमहारा घाट पर स्थित कात्यायनी मंदिर एवं सोनबरसा में स्थित चंडी मंदिर को मिला कर तांत्रिक संप्रदाय का यहां एक प्रसिद्ध त्रिकोण बनता है। नवरात्रों के समय दूर-दूर से लोग देवी की पूजा करने यहां आते हैं। 
सूर्य मंदिर : औरंगाबाद स्थित सूर्य मंदिर की तरह सहरसा के खंडाहा गांव में भी प्रसिद्ध सूर्य मंदिर स्थित है। इस मंदिर में सूर्य देवता की मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति में सूर्य देवता को सात घोड़ों वाले रथ पर सवार दिखाया गया है। यह मूर्ति ग्रेनाइट के एक ही चट्टान से बनी हुई है। इतिहासकारों का मानना है कि यह मूर्ति कर्नाट साम्राज्य के शासक नरसिंहदेव के काल की है। ज्ञातव्य है कि नरसिंहदेव ने 12वीं शताब्दी में मिथिला क्षेत्र में शासन किया था। इस मंदिर को मुगल आक्रमणकारियों ने क्षति पहुंचाई। बाद में प्रसिद्ध संत और कवि लक्ष्मीनाथ गोसाईं ने मिलकर मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था।
लक्ष्मीनाथ गोसाईं स्थल : संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं का यह प्रसिद्ध स्थल जिला मुख्यालय से 9 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वनगांव में स्थित है। यहां बरगद के एक विशाल वृक्ष के नीचे संत से संबंधित अवशेषों को सुरक्षित रखा गया है। यह स्थान पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र है। 
दीवान बन मंदिर : यह मंदिर शाहपुर-मंझौल में स्थित है। इस मंदिर में एक शिवलिंग स्थापित है। कहा जाता है कि इस लिंग की स्थापना महाराजा शालिवान ने 100 ई. पू. में की थी। महाराजा शालिवान की कोई संतान नहीं थी। काफी समय के बाद उन्हें एक पुत्र हुआ और उसका नाम जीमूतवाहन रखा गया। जीमूतवाहन के नाम पर हिन्दूओं का प्रसिद्ध त्योहार जितिया मनाया जाता है। इस स्थान का जिक्र शिव पुराण में भी मिलता है। दीवान बन का प्राचीन मंदिर कोशी नदी में बह गया। स्थानीय लोगों ने उसी स्थान नया दीवान बन मंदिर का पुर्ननिर्माण करवाया।
नौहटा :यह एक प्राचीन गांव है। इस गांव का अस्तित्व मुगलों के समय से ही है। वर्तमान में यह जिला मुख्यालय है। इस गांव में एक 80 फीट ऊंची शिव मंदिर है। यह मंदिर 1934 में आए भूकंप में क्षतिग्रस्त हो गया था। बाद में श्रीनगर राज्य के राजा श्रीनद ने इस मंदिर का पुर्ननिर्माण करवाया। यहां माधो सिंह की समाधि भी है। यह समाधि जमीन से 50 फीट ऊंची है। माधो सिंह की लडरी घाट की लड़ाई में मृत्यु हो गई थी।
उदही : यह गांव खारा प्रखंड में है। यहां देवी दुर्गा की एक प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा खुदाई के दौरान मिली थी। कहा जाता है कि सोने लाल झा को सपने में देवी ने किसी खास स्थान पर खुदाई करने का आदेश दिया। उस स्थान पर खुदाई करने पर ही देवी की यह प्रतिमा मिली थी। बाद में उस प्रतिमा को मंदिर में स्थापित किया गया। दूर-दूर से लोग देवी के दर्शन करने यहां आते हैं। प्रत्येक वर्ष महाअष्टमी को यहां एक मेले का आयोजन किया जाता हैं।
कारु खिरहारी मंदिर : संत कारु खिरहारी का यह मंदिर कोशी नदी के तट पर स्थित है। संत कारु शिवभक्त थे। यहां आने वाले भक्त यहां चढ़ावे के रुप में दूध चढ़ाते हैं। हाल ही में बिहार सरकार ने इस मंदिर को एक प्रमुख पर्यटन स्थल के रुप में विकसित करने की घोषणा की है।
मत्स्यगंधा मंदिर (रक्त काली मंदिर तथा 64 योगिनी मंदिर) : सहरसा शहर में स्थित यह क्षेत्र पहले बंजर था। अब इस स्थान को एक पर्यटन स्थल के रुप में विकसित किया गया है। इस स्थल को सामूहिक रुप से मत्स्यगंधा परियोजना के नाम से जाना जाता है। यहां रक्त काली मंदिर है। यह मंदिर अण्डाकार है। इस मंदिर के अंदरुनी दीवारों पर 64 देवियों की मूर्तियां उत्कीर्ण है। इस मंदिर को देखने दूर-दूर से लोग आते हैं। बिहार सरकार ने यहां एक खूबसूरत टूरिस्ट कॉम्पलेक्स का निर्माण करवाया है।

Sunday 23 December 2012

पर्यटन का गढ़ छत्तीसगढ़

प्रकृति की गोद में बसा छत्तीसगढ़ भारत के हृदय स्थल में स्थित है। छत्तीसगढ़ प्राचीन कला, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत संपन्न है। धर्म कला व इतिहास की त्रिवेणी अविरल रूप से प्रवाहित होती रही है। हिंदुओं के आराध्य भगवान श्रीराम राजिम व सिहावा में ऋषि-मुनियों के सानिध्य में लंबे समय तक रहे और यहीं उन्होंने रावण वध की योजना बनाई थी। त्रिवेणी संगम पर राजिम कुंभ को देश के पांचवें कुंभ के रूप में मान्यता मिली है। वहीं, सिरपुर की ऐतिहासिकता बौद्ध आश्रम, रामगिरी पर्वत, चित्रकूट, भोरमदेव मंदिर, सीताबेंगरा गुफा स्थित जैसी अद्वितीय कलात्मक विरासतें छत्तीसगढ़ को अंतरराष्ट्रीय पहचान प्रदान कर रही है। भारत के दिल में बसा छत्तीसगढ़  प्राकृतिक सुंदर नजारों के साथ-साथ पुरानी गुफाएं, ऊंची पहाडिय़ां और हवा के संग-संग बहती नदियां आपको अपनी तरफ बरबस ही खींच लेंगी। छत्तीसगढ़ को कुदरत ने प्राकृतिक सौंदर्य तोहफे में पेश किया है। तभी तो यह एक ही नजर में सभी को लुभा लेता है। यहां की हरी-भरी वादियां, घने जंगल, मस्त बहतीं नदियां, पुरानी गुफाएं और मन में श्रद्धा जगाते अद्भुत मंदिर आपके दिलो-दिमाग पर इस कदर छाएंगे कि छत्तीसगढ़ की यह छवि आपकी आंखों में हमेशा के लिए बस जाएगी और आप बार-बार इस प्रदेश में घूमने के बारे में सोचेंगे। यहां ज्यादा नदियां और गुफाएं नहीं हैं, लेकिन जितनी भी हैं, वे लगातार पर्यटकों के आकर्षण केंद्र बनी रहती हैं। इनमें जैशपुर में कॉटेबिरा एब रिवर और कैलाश गुफा, बस्तर में कुटुमसार गुफाएं और कैलाश गुफा वगैरह मशहूर हैं। पर्वतों को चीरकर बनी ये गुफाएं, और नदियां आपका ध्यान कहीं और जाने ही नहीं देती हैं। यहां के मॉन्युमेंट्स आपके सामने इतिहास की छवि उकेरने में पूरी तरह सक्षम हैं। अगर आप ऐतिहासिक जगह पर घूमना पसंद करते हैं, तो छत्तीसगढ़ आपके लिए सही चॉइस है। यहां आपको बहुत से किले और स्तूप देखने को मिल जाएंगे। इनमें कावर्धा पैलेस, बिलासपुर में कूटाघाट डैम और खडिय़ा डैम, शिवा बारामूडा टेंपल, सरोदा और रतनपुर का किला प्राचीन आर्किटेक्चर की जीती-जागती तस्वीर है। रंग-बिरंगे छत्तीसगढ़ में मेले और त्योहारों का अलग ही मजा है। दशहरे पर रावण के पुतले जलाकर नहीं, बल्कि दंतेश्वरी देवी की पूजा करके मनाया जाता है। दंतेश्वरी देवी का मंदिर जबलपुर में स्थित है, यहां इन दिनों बड़ा मेला लगता है। इसके अलावा, राजीवलोचन महोत्सव भी यहां बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। तब यहां 15 दिनों तक एक मेला भी लगता है। यही नहीं भागोरिया, चक्रधार, गोंचा, कजरी, नारायणपुर, हरियाली कोरा आदि फेस्टिवल भी यहां का मुख्य आकर्षण हैं।
धर्मों का संगम स्थल
अगर आप धार्मिक स्थलों की यात्रा करना चाहते हैं, तो यहां आपको एक से एक भव्य मंदिर देखने को मिलेंगे। यहां के मशहूर मंदिरों में गंडेश्वर टेंपल, चंपारण, लक्ष्मण मंदिर, राजीवलोचन मंदिर, राम टेकरी, केदार, आनंद प्रभु कुड़ी विहार, शिवानी मंदिर और दंतेश्वरी मंदिर शामिल हैं। यहां कई भगवानों की भव्य मूर्तियां स्थापित हैं। आप स्वस्तिक विहार भी जरूर जाएं, जहां बौद्ध अनुयायी ध्यान लगाते हैं।
लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर : छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 120 किमी की दूरी पर बसे खरौद नगर में स्थित है। यह नगर प्राचीन छत्तीसगढ़ के पाँच ललित कला केन्द्रों में से एक हैं और मोक्षदायी नगर माना जाने के कारण इसे छत्तीसगढ़ की काशी भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ रामायण कालीन शबरी उद्धार और लंका विजय के निमित्त भ्राता लक्ष्मण की विनती पर श्रीराम ने खर और दूषण की मुक्ति के पश्चात 'लक्ष्मणेश्वर महादेवÓ की स्थापना की थी।
यह मंदिर नगर के प्रमुख देव के रूप में पश्चिम दिशा में पूर्वाभिमुख स्थित है। मंदिर में चारों ओर पत्थर की मजबूत दीवार है। इस दीवार के अंदर 110 फीट लंबा और 48 फीट चौड़ा चबूतरा है जिसके ऊपर 48 फुट ऊँचा और 30 फुट गोलाई लिए मंदिर स्थित है। मंदिर के अवलोकन से पता चलता है कि पहले इस चबूतरे में बृहदाकार मंदिर के निर्माण की योजना थी, क्योंकि इसके अधोभाग स्पष्टत: मंदिर की आकृति में निर्मित है। चबूतरे के ऊपरी भाग को परिक्रमा कहते हैं। मंदिर के गर्भगृह मे एक विशिष्ट शिवलिंग की स्थापना है। इस शिवलिंग की सबसे बडी विशेषता यह है कि शिवलिंग मे एक लाख छिद्र है इसीलिये इसका नाम लक्षलिंग भी है। सभा मंडप के सामने के भाग में सत्यनारायण मंडप, नन्दी मंडप और भोगशाला हैं।
छत्तीसगढ़ शैव,वैष्णव,बौद्ध और जैन धर्मों का संगम स्थल है। यहां सदियों पुरानी प्रतिमायें छत्तीसगढ़ के गौरव की साक्षी है। इसी तरह बिलासपुर जिले के मनियारी नदी के तट पर बसे तालाग्राम में देवरानी जेठानी का मंदिर और रूद्रशिव की प्रतिमा जिसके शरीर के अंगों पर जानवरों की आकृतियों विभूषित हैं कई रहस्यों को समेटे हुए है। छत्तीसगढ़ के खजुराहो भोरमदेव कामंदिर अद्भूत मादकता और माधुर्य से देखने वालों का मन मोह लेता है। दुर्ग जिले के प्राचीन शिव मंदिर देव बलौदा और नागपुरा के सात ही राजनांदगांव के गंडई शिवमंदिर का शिल्प और स्थापत्य कला अनूठी है। नगपुरा में जैन तीर्थकंर पाश्र्वनाथ की पूजा नाग देवता के रूप में की जाती है। वहीं डोंगरगढ़ पहाड़ी पर मां बम्लेश्वरी मंदिर की महिमा ही निराली है। धमधा में आदिवासियों के आराध्य बुढ़ादेव का मंदिर है तो झलमला में गंगा मैय्या का । नैसर्गिक और प्राकृतिक कौमार्य छत्तीसगढ़ का आकर्षक पहलू है। पाषाण संस्कृति के साथ ही मानव उत्थान के पद चिन्ह यहां मौजूद है ।
पशु-पक्षियों को जिंदगी जीते देखे
अगर आप नेचर और वाइल्डलाइफ  लवर हैं, तो छत्तीसगढ़ में आपके लिए तमाम नजारे हैं। अलग-अलग तरह के पशु-पक्षियों के लिए यहां 3 नैशनल पार्क और 11 वाइल्ड लाइफ  सेंचुरी हैं। अगर आप छत्तीसगढ़ घूमने का प्लान बना रहे हैं, तो यहां की वाइल्ड लाइफ  से बचकर निकलने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इंद्रावती नेशनल पार्क, कंगेर घाटी नेशनल पार्क और गुरु घासीदास नेशनल पार्क में आपको चिंकारा, चीतल और हिरण के अलावा तमाम जानवर अपने हिसाब से जिंदगी जीते दिख जाएंगे।
बारनावापारा वन्य जीवन अभयारण्य
बारनावापारा वन्य जीवन अभयारण्य इस क्षेत्र का एक उत्कृष्ट और महत्वपूर्ण वन्य जीवन अभयारण्य है। बारनावापारा वन्य जीवन अभयारण्य अपनी हरी भरी वनस्पति और अनोखे वन्य जीवन के कारण जाना जाता है। यहां बारनावापारा वन्य जीवन अभयारण्य में पाए जाने वाले प्रमुख वन्य जंतु हैं बाघ, स्लॉथ बीयर, उडऩे वाली गिलहरी, भेडि़ए, चार सींग वाले एंटीलॉप, चीते, चिंकारा, ब्लैक बक, जंगली बिल्ली, बार्किंग डीयर, साही, बंदर, बायसन, पट्टी दार हाइना, जंगली कुत्ते, चीतल, सांभर, नील गाय, गौर, मुंट जेक, जंगली सुअर, कोबरा और अजगर आदि कुछ प्रमुख हैं। इस अभयारण्य में बड़ी संख्या में पक्षी पाए जाते हैं जिनमें से प्रमुख तोते, बुलबुल, सफेद रम्पयुक्त गिद्ध, हरे आवादावात, लेसर केस्ट्रेल, पी फाउल, कठफोड़वा, रेकिट टेल वाले ड्रोंगो, अगरेट, हेरॉन्स आदि हैं।
इंद्रावती नेशनल पार्क
इंद्रावती नेशनल पार्क छत्तीसगढ़ का सबसे अधिक परिष्कृत और सबसे अधिक प्रसिद्ध वन्य जीवन उद्यान है। यह राज्य का एक मात्र टाइगर रिजर्व है। इंद्रावती नेशनल पार्क देंतेवाड़ा जिला में स्थित है यह पार्क इंद्रावती नदी के नाम पर बनाया गया है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है तथा महाराष्ट्र राज्य के साथ इस संरक्षित वन की उत्तरी सीमा बनाती है। यहां लगभग 2799.08 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल है। इंद्रावती को 1981 में नेशनल पार्क का दर्जा दिया गया है और इसे 1983 के दौरान भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध टाइगर रिजर्व बनाने के लिए भारत की प्रसिद्ध प्रोजेक्ट टाइगर नामक योजना के तहत टाइगर रिजर्व घोषित किया गया है। इंद्रावती नेशनल पार्क के प्रमुख वन्य जीवन में दुर्लभ प्रकार के जंगली भैंसे, बारह सिंगा, बाघ, चीते, सांभर, चार सींग वाला एंटीलॉप, स्लॉथ बीयर, जंगली कुत्ते, पट्टीदार हाइना, मुंटजेक, जंगली सुअर, उडऩे वाली गिलहरियां, साही, पेंगोलिन, बंदर और लंगूर के अलावा अन्य अनेक पाए जाते हैं।
सीतानंदी अभयारण्य
छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में स्थित सीतानंदी वन्य जीवन अभयारण्य मध्य भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण वन्य जीवन अभयारण्य में से एक है। अत्यंत ऊंचे नीचे पहाड़ और पहाड़ी तराइयां हैं जिनकी ऊंचाई 327-736 मीटर के बीच है। यह सुंदर अभयारण्य सीतानंदी नदी के नाम पर बनाया गया है, जो इस अभयारण्य के बीच से बहती है और देव कूट के पास महानदी नामक नदी से जुड़ती है। सीता नंदी अभयारण्य में जाने पर पर्यटकों को सभी प्रकार के वन्य जीवन का एक मनोरंजक और अविस्मरणीय अनुभव मिलता है, खास तौर पर प्रकृति से प्रेम करने वालों और अन्य जीवन के शौकीन व्यक्तियों को।
उदांती अभयारण्य
छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले में स्थित उदांती वन्य जीवन अभयारण्य एक छोटा किन्तु महत्वपूर्ण वन्य जीवन अभयारण्य है। इसकी स्थापना वन्य जीवन संरक्षण अधिनियमए 1972 के तहत 1983 में की गई थी। यह अभयारण्य लगभग 232 वर्ग किलो मीटर के क्षेत्र में फैला है। इस अभयारण्य की स्थलाकृति में भूमि के छोटे-छोटे हिस्से हैं जिनके बीच मैदानी हिस्सों के साथ छोटी छोटी असंख्य पहाडियां हैं। यह सुंदर अभयारण्य पश्चिम से पूर्व के ओर बहने वाली उदांती नदी के नाम पर बनाया गया है जो इस अभयारण्य के अधिकांश भाग में बहती है। उदांती वन्य जीवन अभयारण्य जंगली भैंसों की आबादी के लिए प्रसिद्ध है जो खतरे में है। इनकी उत्तरजीविता और वृद्धि के लिए वन विभाग के अधिकारियों द्वारा कई कदम उठाए गए हैं। यहां पूरे अभयारण्य में अनेक मानव निर्मित तालाब है। उदांती वन्य जीवन अभयारण्य के दौरे पर जाकर आप ढेर सारे जंतुओं और पक्षिओं को इनकी प्राकृतिक स्थिति में देखने का आनंद उठा सकते हैं। वन्य जीवन को देखने का शौक रखने वाले, पक्षियों के प्रेमियों और प्रकृति से प्रेम करने वाले लोगों के लिए उदांती वन्य जीवन अभयारण्य का भ्रमण एक अविस्मरणीय तथा शानदार अनुभव होगा।
कांगेर घाटी नेशनल पार्क
यह कांगेर घाटी की 34 किलो मीटर लंबी तराई में स्थित है। यह एक बायोस्फीयर रिजर्व है। कांगेर घाटी नेशनल पार्क भारत के सर्वाधिक सुंदर और मनोहारी नेशनल पार्कों में से एक है। यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता और अनोखी तथा समृद्ध जैव विविधता के कारण मशूर है। वन्य जीवन और पेड़ पौधों के अलावा पार्क के अंदर पर्यटकों के लिए अनेक आकर्षण हैं जैसे कुटुम सार की गुफाएंए कैलाश गुफा, डंडक की गुफा, और तीर्थगढ़ जल प्रपात। छत्तीसगढ़ के सर्वोत्तम वन्य जीवन का दर्शन करने का इच्छुक लोगों के लिए यह एक आदर्श पर्यटन स्थल है, जहां क्षेत्र की अनोखी जनजातियों को भी देखा जा सकता हैं।
इसके अलावा इस प्रदेश में अचानकमार वन्य जीवन अभयारण्य,भोरमदेव अभयारण्य,गुरु घासीदास नेशनल पार्क,गुरु घासीदास नेशनल पार्क,बादलखोल वन्य जीवन पार्क,पामेडा वन्य जीवन अभयारण्य आदि हैं जो पर्यटकों को प्रकृति में डूबने का अहसास कराते हैं।
छत्तीसगढ़ का कश्मीर : चैतुरगढ़
अलौकिक गुप्त गुफा, झरना, नदी, जलाशय, दिव्य जड़ी-बूटी और औषधीय वृक्ष कंदलओं से परिपूर्ण होने की वजह से चैतुरगढ़ को छत्तीसगढ़ का कश्मीर कहा जाता है। क्योंकि ग्रीष्म ऋतु में भी यहां का तापमान 30 डिग्री सेन्टीग्रेट से ज्यादा नहीं रहता है। अनुपम अलौकिक, प्राकृतिक छटा का वह क्षेत्र दुर्गम भी है। बिलासपुर कोरबा रोड के 50 किलोमीटर दूर ऐतिहासिक जगह पाली है जहां से करीब 125 किलोमीटर दूर लाफा है। लाफा से 30 किलोमीटर ऊंचाई पर है चैतुरगढ़। चैतुरगढ़ में आदिशक्ति मां महिषासुर मर्दिनी का मंदिर, शंकर खोल गुफा दर्शनीय एवं रमणीय स्थल है। इस पर्वत श्रृंखला में चामादहरा, तिनधारी और श्रृंगी झरना अद्वितीय सुंदर है। इस पर्वत श्रृंखला में जटाशंकरी नदी का उद्गम स्थल भी है। इसी नदी के आगे तट पर तुम्माण खोल प्राचीन नाम माणिपुर स्थिर है जो कलचुरी राजाओं की प्रथम राजधानी थी। पौराणिक कथा के अनुसार मातेश्वरी ने चामर चक्षुर, वाण्कल विड़ालक्ष एवं महाप्रतापी महिषासुर का संहार कर कुछ पल इस पर्वत शिखर पर विश्राम पर देवों को मनवांछित वर प्रदान कर माणिक द्वीप में अंतध्र्यान हो गई थी। दुर्गम पहाड़ी पर स्थित होने की वजह से कई वर्षों तक यह क्षेत्र उपेक्षित रहा। सातवीं शताब्दी में वाणवंशीय राजा मल्लदेव ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। इसके बाद जाज्वल्बदेव ने भी मंदिर और किले का जीर्णोद्धार करवाया था। चैतुरगढ़ किले के चार द्वार बताये जाते हैं जिसमें सिंहद्वार के पास महामाया महिषासुर मर्दिनी का मंदिर है तो मेनका द्वार के पास है शंकर खोल गुफा। मंदिर से तीन किलोमीटर दूर शंकर खोल गुफा का प्रवेश द्वार बेहद छोटा है और एक समय में एक ही व्यक्ति लेटकर जा सकता है। गुफा के अंदर शिवलिंग की स्थापना है। कहते हैं कि पर्वत के दक्षिण दिशा में किले का गुप्त द्वार है जो अगम्य है। किंवदंती के अनुसार आदि शक्ति मां महिषासुर मर्दिनी इसे गुप्त द्वार से ही गुप्त पुरी माणिक द्वीप में अंतध्र्यान हुई वहीं धनकुबेर का खजाना इसी द्वार से लाया जाता रहा है। अपने अलौकिक प्राकृतिक छटा के साथ ही चैतुरगढ़ ऐतिहासिक, धार्मिक, पौराणिक, स्थलों के रूप में प्रसिद्ध है। दुर्गम पहाड़ी पर पर्यटन का अपना अलग ही आनंद है। चैतुरगढ़ की तलहटी पर लाफा में प्राचीन महामाया मंदिर और बूढ़ारक्सादेव के दर्शन किए जा सकते हैं। पाली में नौकोनिया तालाब के तट पर प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर की स्थापत्य कला आबू के जैन मंदिरों की तरह अद्भूत है। जालीदार गुम्बज एवं स्तम्भों में उत्कीर्ण मूर्तियां कलात्मक एवं सुंदर है। पाली में पर्यटकों के विश्राम हेतु पर्यटन मंडल ने विश्राम गृह का निर्माण किया है।

जन्नत बुंदेलखण्ड का विशाल जंगल


मध्य प्रदेश में भेडिय़ों और काले हिरणों के लिए सबसे बड़े कुदरती आवास के रुप में प्रसिद्ध 'नौरादेेही अभयारणÓ अब किस्म-किस्म के देशी तथा विदेशी परिंदों के जन्नत के रुप में नई पहचान बनता जा रहा है। संभावना है कि आने वाले समय में बुंदेलखण्ड भी परिंदों का दीदार करने वाले तथा उनके दीवाने सैलानियों का पसंदीदा पड़ाव बन जाए।  बुंदेलखण्ड अंचल के जंगलों के अधिकारियों का मानना है कि प्रदेश के इस सबसे बड़े अभयारण में हिरण, चीतल, जंगली भैसा, मगरमच्छ, बंदर, चौसिंघा तथा अन्य जंगली जानवरों के अलावा रंग-बिरंगे देशी और विदेशी परिदों के पसंदीदा आशियाना बननेे से परिंदों के दीवानों के यहां आने की संभावना बढती जा रही है।  बुंदेलखण्ड के तीन जिलों, सागर, नरसिंहपुर तथा दमोह के 1197 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला नौरादेही अभयारण सैलानियों को लुभाने वाला यह क्षेत्र हालांकि अब तक देश के पर्यटन के नक्शे पर कोई खास पहचान नहीं बना पाया है लेकिन 'देर आयद दुरुस्त आयदÓ की तर्ज पर ही सही जंगल महकमें ने इस वर्ष एक अक्टूबर से शुरु हुए वन्य प्राणी सप्ताह के दौरान आम जनता को जंगलों की कुदरती खूबसूरती से रुबरु कराने के लिए Óजंगल करवाÓ नाम से नियमित पर्यटन बस सेवा शुरु की है।  सागर वन क्षेत्र के मुख्य वन संरक्षक अजीत श्रीवास्तव की माने तो नोरादेही अभयारण में सैलानियों को भले ही बाघ के दर्शन न हो पाएं लेकिन अभयारण का छेवला तालाब, मूलराघाट, बरगयाव तालाब, तेंदूघाट व रगेडा घाट पर उन्हें देश विदेश के एक से बढ़कर एक दुर्लभ प्रजातियों के पक्षियों की अठखेलियां तथा कलरव के दिलकश नजारे देखने को मिल सकते हैं। उत्तराखंड के देहरादून स्थित वन्यजीव संस्थान भी नौरादेही मे 100 से ज्यादा प्रजाति के पक्षियों मौजूदगी की पुष्टि कर चुका है।  इसके अलावा जंगल की कुदरती खूबसूरती, झरने, नदी हरियाली के साथ साथ हिरण, चौसिंघा, मगरमच्छ व नीलगाय जैसे जानवरों को उनके प्राकृतिक आवास में रहने तथा विचरण करते देखना भी किसी रोमांच से कम नहीं होता।  नौरादेही अभयारण के वनमण्डल अधिकारी जे. देव प्रसाद ने बताया कि अभयारण में करीब 150 किस्म के परिंदो को देखा जा सकता है। इतना ही नहीं इनमें से 125 किस्म के परिदों का सचित्र सिलसिलेवार ब्योरा भी एकत्रित किया जा सकता है। विदेशी परिंदे खास तौर पर शीत ऋृतु में यहां भ्रमण करने आते हैं।  देव प्रसाद के मुताबिक छेवला तालाब अभयारण का एक ऐसा स्थल बनता जा रहा है जहां करीब करीब सभी प्रजातियों के पक्षियों को एक साथ अठखेलियां करने और चहचहाने के नजारे देखे जा सकते हैं। इस तालाब पर सैर करने के लिए आने वाले परिंदो में से करीब दो दर्जन दुर्लभ प्रजाति के है। इन परिंदों में सुलतान बुलबुल (एशियन पैराडाईज फ्लाईकैचर), गंगुला (एशियन ओपनबिल), सुरमाल (ब्लैक स्टाक), छोटा कठफोडवा (इजिप्शियन वल्चर), छोटा गरुड़ (लेसर एड्जुटेण्ट), छोटी पंडुब्बी (लिटिल ग्रेब), सुराखिया (लिटिल इरिगिट), दूधराज, टिटहरी, पहाड़ी भुजंग, कटसरंग व रामचिरैया (किंगफिशर) सहित अन्य परिंदें शामिल हैं।  प्रवासी पक्षियों में साइबेरियन सारस (क्रेन), छोटी मुगावी (कामन टील), सीखपर (नार्दन पिनटेल), मायले (गडवेल), सहित अन्य के नाम शामिल हैं।  नोरादेही अभयारण में आने वाले परिंदों के व्यवहार का अध्ययन कर रहे आर के तिवारी के मुताबिक दूसरे देशों से आनेवाले अनेक पक्षियो्रं के समूह में से कुछ सदस्य तो ऐसे है जो एक बार नौरादेही अभयारण आने के बाद जाड़ा खत्म होने पर भी वापस वतन को नहीं लौटे। इससे ऐसा लगता है उनको यहां की आबोहवा इतनी रास आई कि नौरादेही अभयारण को ही उन्होने अपना स्थाई बसेरा बना लिया है।  बहरहाल इतना तो कहा ही जा सकता है कि अगर देश विदेश के परिंदों की पसंदीदा आशियाने की तलाश बुंदेलखण्ड के जंगलों में पूरी हो रही है तो नए नए खूबसूरत परिंदो के देखने के शौकीन सैलानियों तथा अध्एताओं की यात्रा में बुंदेलखण्ड भी एक अहम पडाव बनेगा।  वन प्रेमियों का कहना है कि जंगल विभाग इस स्थान को ऐसा बना दे जो परिंदो को न केवल भोजन तथा प्रजनन के लिहाज से मुफीद लगे बल्कि उनके लिए सुरक्षित भी साबित हो सके।

Tuesday 18 December 2012

सिक्किम : पृथ्वी का नया घर


तारीफ  करूं क्या उसकी जिसने तुझे बनाया। सिक्किम में पहुंचकर आप कुछ ऐसा ही महसूस करेंगे।  बर्फ  से ढकी हिमालय की चोटियों, फूलों के गुच्छों से लदे मैदान, चमकदार रंग-बिरंगी संस्कृति और मनोरंजक त्योहार के साथ यहां की वनस्पति और जीव जंतु यात्रियों के छुट्टिïयों को सुंदर और चुनौतिपूर्ण बनाते हैं। सिक्किम की शान है कंचनजंगा पर्वत जो दुनिया में तीसरा सबसे ऊंचा पर्वत है। बर्फ  से ढके पर्वत दुनिया की अविवादित सर्वोच्च श्रृंखला कहे जाते हैं। सिक्किम अपनी हरी भरी वनस्पति, सुंदर प्राकृतिक घाटियों और विशाल पर्वतों के लिए प्रसिद्ध है। यहां समृद्ध और भव्य सांस्कृतिक विरासत के बीच शांति प्रिय लोक रहते हैं जो पर्यटकों का एक अत्यंत सुरक्षित मनोरंजन स्थल प्रदान करते हैं। आज यात्री सिक्किम की यात्रा पर आकर यहां की विहंगम प्राकृतिक सुंदरता के रहस्य की खोज करते हैं। यहां के हरे भरे और घने वन तरह तरह के विशिष्ट फूलों से भरपूर हैं और यहां की पर्वतीय विस्तार सिक्किम की दो मुख्य नदियों के बीच हैं। तिस्ता और रंगीत के सुंदर गांव और पानी के झरने तथा गर्म जल प्रपात लोगों को आकर्षित करते हैं। इन पहाड़ों के बीच अनेक गुफाएं हैं जिन्हें लोग पवित्र मानते हैं और इन्हें धार्मिक स्थल का दर्जा दिया जाता है। प्राकृतिक सुंदरता से सराबोर सिक्किम के हर हिस्से की अपनी खासियत है।
गंगटोक : घनी हरियाली के बीच उभरे एक नगीने की तरह सिक्किम की राजधानी गंगटोक की अपनी शोभा निराली है। ज्यो ज्यो सड़कें चढ़तीं जाती है नए-नए दृश्य आँखों को लुभाते जाते है। भोर की पहली किरण चाँदी सी चमकती कंचनजंघा के दर्शन यहां से भी किए जा सकते है। यहां की स्थापत्य कला, हरी-भरी घाटियां, आनंद और उल्लास भर कर सैलानियों को रोमांचित करतीं है। विश्व की सबसे ऊंची चोटियों मे तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंघा की तलहटी में बसे गंगटोक का अर्थ, है 'ऊंचा पहाड़Ó। जीरो पॉइंट की ऊंचाई 6000 फुट है पर्वतारोहण के शौकीन कंचनजंघा पहुँचते है। यहाँ तिब्बतोंताजी ऐसा स्थान है, जहां तिब्बत की कला के बेहतरीन नमूनों का उद्यान भी दर्शनीय है। यहां की झीलें भी पर्यटकों को नीली गहराई में डुबकी लगाने को मजबूर करते हैं। खेचीपेरी ताल या यक्ष ताल व छंगु झील ऐसे ही दर्शनीय स्थल है कहा जाता है की यहीं महाभारत में वर्णित यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न पूछे थे। वैसे गंगटोक  क ा शाब्दिक  अर्थ है, पहाड़  क ी चोटी। वाकई, वहां क ी सड़क ों से गुजरते हुए आपक ो इस सच क ा अनुभव भी होगा। क ंचनजंगा पहाडिय़ों से घिरे इस शहर में जगह-जगह फै ले बौद्ध मठ एक  खास धर्म के  प्रति आस्था पैदा क रते हैं। सिक्कि म क ी खूबसूरती के  बारे में क हा जाता है कि इसे 5-6 दिनों में समेटना असंभव है। शायद टूरिस्ट क ी आसानी के लिए ही टूरिजम डिपार्टमेंट ने सिक्कि म क ो 4 हिस्सों में बांटा है- नॉर्थ, ईस्ट, वेस्ट और साउथ सिक्किम। इनमें सबसे ज्यादा आक र्षक  ईस्ट सिक्कि म क ो माना जाता है और गंगटोक  भी इसी क ा हिस्सा है। सिक्किम में अब आधुनिक फैशन पहुँच चुका है, विशेषकर गंगटोक शहर किसी महानगर की आधुनिक संस्कृति की पूरी पूरी तस्वीर पेश करता है एक से एक ऊंचे इमारतेए बड़ी-बड़ी दुकाने, सरसराती रंगबिरंगी कारें, वीडियो पार्लर, सड़कों पर चहलकदमी करते लड़के-लड़कियां, मुख्य बाजार में जगह जगह फिल्मी गीतों के कैसेट वगैरह गंगटोक के कुछ नीचे लाल बाज़ार में प्रतिदिन शाम को हाट लगता है, जहां दुकानदारी ज़्यादातर महिलाए ही करती है। सिक्किम का पहनावा अलग अलग तरह का है नेपाली स्त्रियाँ कमर से ऊपर ब्लाउज पहनती है और सिर को एक प्रकार के दुपट्टे से ढकती है। अधिकतर पुरुष चुस्त मिरजाईनुमा ऊंचा कुरता पहनते है। वे कमर मे कपड़ा बांधे रहते है। भोटिया स्त्री पुरुष लंबा चोंगा पहनते है। यहाँ की सभी जातियों की स्त्रियाँ सोना, फिरोजी, पत्तर और तरह तरह के मोती की लडिय़ों के आभूषण पहनती है।
डीयर पार्क : फूलों से भरे डीयर पार्क के दुर्लभ हिरणों के प्रजातियाँ देखी जा सकती है। लाल पांडा और चौकड़ी भरते हिरण प्रकृति प्रेमी पर्यटकों को अत्यंत लुभावने लगते है। इस उद्यान मे बुद्ध की स्वर्णजडि़त प्रतिमा लगी हुई है, जो शांति प्रदान करने वाली प्रतीत होती है उद्यान प्रात: 8 बजे से 11 बजे तक तथा छुट्टी के दिन प्रात: 8 बजे से शाम 5 बजे तक खुला रहता है।
आरकिड सैंकच्यूरी :  विभिन्न प्रजातियों के 200 से अधिक दुर्लभ पौधो का संग्रह है। यह तिब्बती संस्थान के नीचे बना एक अनूठा तथा दर्शनीय स्थल है। तिब्बत रिसर्च इंस्टीट्यूट नामक स्थान तिब्बती बौद्ध साहित्य के लिए सारे विश्व में प्रसिद्ध है, इसमे प्राचीन पाण्डुलिपि चित्रकृतियों, पूजा के अनुपम वस्तुओ और प्रतिमाओं आदि का अनूठा संग्रह है, यह देश विदेश के शोधार्थयों के लिए भी कार्य करता है।
रोमांचकारियों को आमंत्रण देता सिक्किम : रोमांच के शौकीन लोगों के लिए इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। तीस्ता का प्रवाह मानो एक आमंत्रण सा देता है। नदी की तेज धार में उफनते पानी के बीच लाइफ  जैकट पहनकर छोटी सी डोंगी को खेने का अनुभव बिना महसूस किए समझा नहीं जा सकता। तीस्ता व रांगितए दोनों ही नदियां राफ्टिंग के लिए उपयुक्त हैं। तीस्ता में शुरुआत माखा से की जा सकती है और यहां से नदी की धार में आप सिरवानी व मामरिंग होते हुए रांगपो तक जा सकते हैं। वहीं रागिंत नदी में सिकिप से शुरुआत करके जोरथांग व माजितार के रास्ते मेल्लि तक जाया जा सकता है। ज्यादा दिलेर व अनुभवी लोगों के लिए कयाकिंग का विकल्प भी है। राफ्टिंग व कयाकिंग के लिए अक्टूबर से दिसंबर तक का समय सबसे ज्यादा मुफीद है जब नदियां अपने पूरे यौवन पर होती हैं।
ट्रैकिंग : सिक्किम में रोमांच राफ्टिंग के अलावा ट्रैकिंग का भी है। दरअसल राज्य तेजी से ट्रैकिंग का नया बेस बनता जा रहा है। मन व शरीर साथ दे तो ट्रैकिंग के जरिये शायद आप धरती के इस खूबसूरत हिस्से को ज्यादा नजदीकी से देख-समझ सकेंगे। कभी स्तूपों व मठों से गुजरते हुए तो कभी प्रकृति की अद्भुत छटा को निहारते हुएए कभी अचानक ही मिल गए हिरण के पीछे भागते हुए तो कभी किसी ग्रामीण से कंचनजंघा के बारे में दंतकथाएं सुनते हुए आप खुद को एक अलग ही रहस्यमय दुनिया में महसूस करेंगे। यूं तो ट्रैकिंग का असली मजा ही खुद रास्ते खोजने व बनाने का है लेकिन फिर भी सुहूलियत के लिए यहां कई स्थापित ट्रैक है। मार्च से मई और फिर अक्टूबर से  दिसंबर के बीच पेमायांग्शे से रालंग तक मोनेस्टिक ट्रैक होता है। इसी तरह मार्च.मई में नया बाजार से पेमायांग्शे तक रोडोडेंड्रोन ट्रैक होता है। कंचनजंघा ट्रैक मध्य मार्च से मध्य जून तक और फिर अक्टूबर से दिसंबर तक युकसोम से शुरू होता है और राठोंग ग्लेशियर तक जाता है।
गुरुदौंगमर लेक
इसे दुनियाभर में सर्वाधिक ऊंचाई वाली झीलों में से एक माना जाता है। यह लेक चारों तरफ से बर्फीले पहाड़ों की बुलंद ऊंचाइयों से घिरी हुई है। पूरे साल इसका पानी दूधिया सफेद रहता है और हिंदुओं व बौद्ध धर्म के लोगों की इसमें गहरी आस्था है। इस झील की पवित्रता के संबंध में कहा जाता है कि कभी यह झील साल भर जमी रहती थी और यहां लोगों को पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं हो पाता था। जब सन् 1516 में गुरु नानक देव तिब्बत से वापस आते समय इस जगह से गुजरे, तो यहां चरवाहों ने उनसे इस मामले में विनती की। इस पर गुरु जी ने जमी हुई झील का एक हिस्सा छुआ, तो उस जगह पानी निकल आया। कहा जाता है कि आज भी इस हिस्से का पानी जमता नहीं है। इस घटना के बाद से इस जगह का नाम गुरुदौंगमर रखा गया और तभी से इसे पवित्र स्थान का दर्जा भी मिला। गुरुदौंगमर लेक के पास ही कुछ समय पहले एक गुरुद्वारे का निर्माण करवाया गया है। 1990 में बनी इस जगह को 'सर्व धर्म स्थलÓ का नाम मिला है। बेशक इस तरह यह तमाम धर्मों के अनुयायियों के लिए खास जगह है।
खूबसूरत झीलें
यहाँ की झीलें, झरने और नदियाँ भी बहुत प्रसिद्ध हैं। इनमें से एक टोम्गो झील है।  इसका अर्थ सिक्किमी भाषा का शब्द है और नेपाली में इसे छंगू झील कहा जाता है। यहाँ एक मंदाकिनी नाम का झरना भी है। राम तेरी गंगा मैली फिल्म की शूटिंग इसी झरने के पास हुई थी इसलिए इसे मंदाकिनी झरने के नाम से प्रसिद्धि मिली हुई है। यहाँ एक झरने का नाम 'सात बहनेÓ है। सात बहने झरने में पानी पहाड़ी से सात चरणों में नीचे रास्ते तक गिरता है, इसलिए इसे सात बहने कहा गया है। इस झरने के बारे में एक कहानी प्रचलित है।  किसी राजा की 7 राजकुमारियां थीं। उन्हें प्रकृति से प्रेम था और वे इसी झरने के रूप में हमेशा प्रकृति की हो गयीं, इसलिए इसका नाम 'सात बहनेÓ पड़ा। यहां के झरनों पर बॉलीवुड का असर ज्यादा है।  इसी का प्रभाव है कि यहाँ एक झरने का नाम अमिताभ बच्चन झरना है।